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अरु नेम ब्रत संजम कै आसन अखंड लाइ साँसनि कौं धूटिहैं जहाँ लौ गिलि जाइगौ । कहै रतनाकर धरैगी मृगछाला धूरि हूँ दरैगी जऊ अंग छिलि जाइगौ ॥ पाँच-आँचि हूँ की झार झेलिहैं निहारि जाहि रावरौ हू कठिन करेजी हिलि जाइगौ । सहिहैं तिहारे कहैं सांसति सबै पै बस एती कहि देहु कै कन्हैया मिलि जाइगौ ॥६॥ साधि लैंहैं जोग के जटिल जे विधान ऊधौ बांधि लैंहैं लंकनि लपेटि मृगछाला हू । कहै रतनाकर सु मेल लैंहैं छार अंग भैलि लैंहैं ललकि घनेरे घाम पाला हू । तुम तो कही औ अनकही कहि लीनी सबै अब जो कहौ तौ कहैं कछु ब्रज-बाला हू । ब्रह्म मिलिवै तें कहा मिलिहै बतावो हमैं ताको फल जब लौँ मिलै ना नंदलाला हू ॥६३॥ साधि समाधि औ अराधि सबै जो कहौ आधि-व्याधि सकल स-साध सहि लैहैं हम । कहै रतनाकर पै प्रेम-प्रन-पालन कौं नेम यह निपट सछेम निरबैहैं हम ॥