यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

हम जमराज की धरावति जमा न कछू सुर-पति-संपति की चाहति न ढेरी हैं। चेरी हैं न ऊधौ ! काहू ब्रह्म के बवा की हम सूधौ कहे देति एक कान्ह की कमेरी हैं ॥४९॥ सरग न चाहै अपबरग न चाहैं सुना भुक्ति-मुक्ति दोऊ सौं विरक्ति उर आनै हम । कहै रतनाकर तिहारे जोग-रोग माहि तन मन साँसनि की साँसति प्रमानैं हम ॥ एक ब्रजचंद कृपा-मंद-मुसकानि ही मैं लोक परलोक को अनंद जिय जानैं हम । जाके या बियोग-दुख हु मैं सुख ऐसी कडू जाहि पाइ ब्रह्म-सुख हू मैं दुख मानें हम ॥५०॥ जग सपना सौ सब परत दिखाई तुम्हें तातें तुम ऊधौ हमैं सेवित लखात हौ। कहै रतनाकर सुनै को बात सेवित की जोई मुँह आवत सो बिबस बयात हो॥ सोवत मैं जागत लखत अपने को जिमि त्यौँ ही तुम आपही सुज्ञानी समुझात हो। जोग-जोग कबहूँ न जानें कहा जोहि जका ब्रह्म-ब्रह्म कबहूँ बहकि बररात हो ॥५१॥