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हाय बिन मोल हूँ विकी न मग हूँ मैं कहूँ तापै बटपार-टोल लोल हू लुभानी ना। केती मिली मुकति बधू बर के कूबर मैं ऊबर भई जो मधुपुर में समानी ना ॥४४॥ हम परतच्छ मैं प्रमान अनुमाने नाहि तुम भ्रम-भौंर मैं भले ही बहिबा करौ। कहै रतनाकर गुबिंद-ध्यान धारैं हम तुम मनमानौ ससा-सिंग गहिबा करौ॥ देखति सो मानति हैं सूधौ न्याव जानति हैं ऊधौ ! तुम देखि हूँ अदेख रहिवौ करौ। अलख ब्रह्म हम न कहेगी तुम लाख कहिवौ करौ॥४५॥ लखि ब्रज-भूप-रूप रंग-रूप-रहित लखात सवही हैं मैं वैसौ एक और ध्याइ धीर धरिहैं कहा। कहै रतनाकर जरी हैं विरहानल मैं और अब जोति कौँ जगाइ जरिहैं कहा ॥ राखा धरि ऊधौ उतै अलख अरूप ब्रह्म तासौं काज कठिन हमारे सरिहैं कहा । एक ही अनंग साधि साध सब पूरी अब और अंग-रहित अराधि करिहैं कहा ॥४६॥