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षटरस-व्यंजन तो रंजन सदा ही करें ऊधौ नवनीत हूँ स-प्रीति कहूँ पाएँ हैं। कहै रतनाकर बिरद तो बखाने सबै साँची कही केते कहि लालन लड़ा हैं । रतन-सिँहासन विराजि पाकसासन लौं जग-चहुँ-पासनि तौ सासन चलाबें हैं। जाइ जमुना-तट पै कोऊ बट-छाहिँ माहि पाँसुरी उमाहि कबौं बाँसुरी बजावैं हैं ॥३७॥ कान्ह-दूत कैयौँ ब्रह्म-दूत है पधारे आप धारे प्रन फेरन को मति ब्रजबारी की। कहै रतनाकर पै प्रीति-रीति जानत ना ठानत अनीति आनि नीति लै अनारी की। मान्या हम, कान्ह ब्रह्म एक ही, कयौ जो तुम, तौहूँ हमैं भावति न भावना अन्यारी की। जैहै बनि-बिगरि न बारिधिता बारिधि की बँदता बिलहै बूद बिबस बिचारी की ॥३८॥ चोप करि चंदन चढ़ाया जिन अंगनि पै तिनपै बजाइ तूरि धूरि दरिबौ कही। रस-रतनाकर स-नेह निरवार्गी जाहि ता कच कौँ हाय जटा-जूट परिबौ कहा ॥