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[उद्धव का मथुरा से व्रज जाना] न्हात जमुना मैं जलजात एक देख्यो जात जाको अध-ऊरध अधिक मुरझायो है कहै रतनाकर उमहि गहि स्याम ताहि बास-बासना सौँ नैंकु नासिका लगायौ है। त्याँही कछु धूमि झूमि बेसुध भए कै हाय पाय परे उखरि अभाय मुख छायौ है। पाए घरी बैक मैं जगाइ,ल्याइ ऊधौ तीर राधा-नाम कीर जब औचक सुनायौ है ॥२॥ मग आए भुज-बंध दिए ऊधव-सखा के कंध डग-मग पाय धरत धराए हैं। कहै रतनाकर न बुझै कडू बोलत औ खोलत न नैन हूँ अचैन चित छाए हैं । पाइ बहे कंज मैं सुगंध राधिका की मंजु ध्याए कदली-बन मतंग लौँ मताए हैं। कान्ह गए जमुना नहान पै नए सिर साँ नीकै तहाँ नेह की नदी मैं न्हाइ आए हैं ॥३॥ देखि दूरि ही तैं दौरि पौरि लगि मँटि ल्याइ आसन दै साँसनि समेटि सकुचानि तें। कहै रतनाकर यौँ गुनन गुबिंद लागे जालौँ कछू भूले से भ्रमे से अकुलानि ते ॥