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आँचल औ कौपीन धरे काषाय रंगाए। भाल बिसाल त्रिपुंड मुंड सह सिखा मुंडाए ॥ सिव हर-हर धुनि धुनत गुनत सिव-गुन-गन नीके। कीट भंग के न्याव भए सिव रूप मही के ॥५१॥ महामंत्र कोउ भनत कोऊ नारायन टेरत । काऊ वेद वेदांत बदित सिद्धांत निवेरत ॥ करि अनुराग सभाग कोऊ गुरु-चरन-तरनि पर। करत दंडवत दौरि दंड निज धारि धरनि पर ॥५२॥ धर्म सरूप उदार भूप तहँ छेत्र चलावत । तामैं इच्छा पूरि भूरि भिच्छा सब पावत॥ साहूकार उदार सेठ श्रद्धा सरसाए। राजा राउत राव भक्ति के भाव भराए ॥५३॥ कबहुँ तहाँ बर बेष भूरि भोजन ठनवावत । रसना-रंजन रुचिर बिविध व्यंजन बनवावत ॥ सकल जथा करि बिनय यथाविधि न्यौति बुलावत । पुलकित अंग उमंग संग देखत उठि धावत ॥५४॥ पग पखारि कर ढारि बारि सादर बैठारत । स्वजन-सहित कर ब्यजन लिये सम स्वेद निबारत ॥ आत्म-ज्ञान गंभीर नीर निधि थाहनहारे। पंच तत्त्व को तत्त्व भली. बिधि ठाहनहारे ॥५५॥