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प्रावत अभ्यागत अनेक मधुकर-व्रतधारी। पंच भवन भ्रमि पंचभूत पोषन अधिकारी ।। आँचल औ कौपीन कसे कटि कर भोली गहि । लै मधुकरी प्रथम जात सो नारायन कहि ॥४६॥ बैठि साधु ? चार जहाँ तहँ सुचि मतिवारे । बदन तेज की छटा जटा सिर सुंदर धारे ॥ कोऊ काषायी बसन पहिरि कोऊ सिमिरिष रंगी। सज्जन सुघर सुजान सीलसागर सतसंगी ॥४७॥ कोउ हरि-लीला कहत सुनत पुलकत पुलकावत । कोऊ न्याय बेदांत बरनि मुलकत मुलकावत ॥ कोउ सितार करतार मेलि हरि-गुरु-गुन गावत । कोउ उमंग सौँ संग संग ढोलक ढमकावत ॥४८॥ संन्यासिनि के कहुँ महान मंजुल मठ राजै । दरदलान कोठे जिनमें बहुँ दिसि छबि छाजें ॥ छत छतरी बर बंद खंभ गेरू रँग राखे । अलकतरे रंग कल किवार सित सोहत पाखे ॥४९॥ बट पीपर औ मौलसिरी के बिटप सुहाए । सुखद सुसीतल छाँह देत अति अजिर लगाए ॥ जिनके नीचे लसत लिए कर दंड कमंडल । बिसद विराजत जम-अदंड दंडिनि को मंडल ॥५०॥