यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

हरि-कीर्तन की कहूँ मंडली सुघर सुहाई । हरि-हर-गुन-गन-गान बितान तनति सुखदाई ।। काम क्रोध मद मोह दनुजदल दलन सदाही । रामचंद्र से बचन-बान साधक जिहि माहीं ॥३॥ चटकीली अति पाग कुसुम रँग सिर पर बाँधे । साजे बागा अंग द्रवित दुपटा कल काँधे । दिब्य देह बर बदन ललित लोचन अरुनारे । भाल बिसाल सुलाल तिलक कुंकुम को धारे ॥३२॥ भगवत-लीला-गान तानपूरा कर लीन्हे । करत विविध मंजीर मृदंगहु को संग दीन्हे ।। करि-करि बर ब्याख्यान बहुरि भावहिँ दरसा । उदाहरन दृष्टांत आनि बहु रस सरसावै ॥३३॥ श्रोतनि की भरि भीर रही चारिहु दिसि भारी । राव रंक युव बृद्ध मूर्ख पंडित नर-नारी ॥ पै कोऊ कहत न बैन नैन बक्तादिसि कीन्हें । तन्मय है सब सुनत मौन मुद्रा मुख दीन्हें ॥३४॥ अग्निहोत्र की लपट झपटि पातक कहुँ जारै । स्वाहा ध्वनि की दपट रपटि कुल-कुमति बिदा । सब सुरराज-समाज सदा जासौं सुख पावै । प्रजा लहै कल्यान बारि बादर बरसावै ॥३५॥