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( १० ) सच्चे प्रकृति-वर्णन को यह विरलता ब्रजभाषा के काव्य मात्र में है। इसके कारण का अनुसंधान करते हुए पंडित रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है कि ब्रजभाषा का विकास उस काल में हुआ था, जब संस्कृत का अलंकृत रूप अच्छी तरह प्रतिष्ठित हो गया था। काव्य की स्वाभाविक गति के लिए स्थान ही नहीं रह गया था। परंतु स्वाभाविक अस्वाभाविक की बात उतनी नहीं है। हमारे विचार से सबसे प्रमुख कारण भक्ति और दर्शन की वे भावनाएँ थीं जो ब्रजभाषा-साहित्य पर ही नहीं, देश की अपार जनता पर भी अधिकार जमा चुकी थीं और उसकी मनोवृत्ति ही बदल चुकी थी। अनंत और असीम की आकांक्षा में सारा देश एक प्रकार से निमग्न सा हो गया था और जब कभी सीमा के सौंदर्य का-राम, कृष्ण अथवा उनसे संबद्ध परिस्थितियों के सौंदर्य का वर्णन किया जाता, तब भी उसमें अपार निस्सीम शोभा की ही ध्वनि भरी होती थी। जीवन की साधारण घटना और लौकिक जगत की घरेलू सुषमा पर दृष्टि पड़ने का अवसर कम ही रहा। सामाजिक अत्याचार और राजनीतिक बंधन से ऊबकर मानों हमारी दृष्टि पर पड़ती आँखें आकाश की ओर ही ताकती रहती थीं। जिन लोगों ने प्रकृति पर कुछ ध्यान दिया, वे "घाघ-भडुरी" कहलाए। उनकी अशिष्ट परंपरा मानी गई। घटना और पात्रों का निर्वाह करने की चिंता में ब्रजभाषा के कवियों को प्रबंध क्षेत्र के भीतर तो प्रकृति-वर्णन की सुविधा मिली ही नहीं; मुक्तकों में भी ऋतु-वर्णन अधिकतर नायक-नायिका के ही प्रसंग से किया गया। अतः वर्णन की दृष्टि से ऋतुएँ अयथार्थ और नीरस ही रहीं। सेनापति आदि कुछ कवियों ने अवश्य वास्तिवकता से काम लिया, परंतु वह भी बहुत दूर तक नहीं जाती। प्रत्येक ऋतु की एक सुखद या दुःखद भावना ही प्रस्फुटित होकर रह जाती है, प्रकृति के अन्य प्रभावशाली रहस्य प्रकट ही नहीं होते। अँगरेज कवि वर्ड सवर्थ की-सी प्रकृति की सजीव सत्ता की आध्यात्मिक अनुभूति पुरानी हिंदी के किसी कवि को प्राप्त नहीं हुई। रत्नाकर जी के मान्य और आवरणीय पद्माकर की “गुलगुली गिलमें" और उनके साथ के सरंजाम देखे ही जा चुके हैं और "मंद मंद मारुत महीम मनसा" को महिमा भी मालूम ही है। विश्व के ओर-छोर तक फैली हुई प्रकृति की प्रसन्न विभूति और कवित्तों की कवायद में बहुत बड़ा अंतर है। रत्नाकर जी ने भी फुटकर पदों में ऋतु संबंधी अष्टक लिखे हैं जो ब्रजभाषा के प्रकृति-वर्णन की तुलना में बहुत कुछ और आगे बढ़े हुए हैं। यथा- फूली अवली हैं लोध लवली लवंगनि की, धवली भई है स्वच्छ सोभा गिरि सानु की। कहै रतनाकर त्यौँ मरुवक फूलनि पै, झूलनि सुहाई लगै हिम परमानु की ॥ साँझ तरनी औ भोर तारा सी दिखाई देति, सिसिर कुही मैं दबी दीपति कृसानु की। सीत भीत हिय मैं न भेद यह भान होत, भानु की प्रभा है कै प्रभा है सीतभानु की। (शिशिर) मुक्तक