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जो प्रसन्न तौ महासिद्धि जोगिनि पहँ जाऔ । औ सज्जन के सदन सदा निधि बास बनाओ। औ प्रयोग साधकनि प्राप्त है मोद बढ़ाऔ । पै भाषत यह भेद ताहि गुनि हृदय बसाओ ॥२९॥ जो षट भले प्रयोग सहज ही होहि सिद्ध सो। सधहिँ बिलँब सौं पै प्रयोग घट आहिँ बुरे जो" । यह सुनि भौचक के समस्त यह उत्तर दीन्यौ । “धन्य भूप हरिचंद लोक-उत्तर कृत कीन्यौ ॥३०॥ तुम बिन को महि जो ऐसी संपति लहि त्यागै । आपुनपौ बिसराइ जगत के हित मैं पागै" । यौं कहि दै असीस सब देवी देव सिधारे । पुनि नृप टहरन लगे लदृ काँधे पर धारे ॥३१॥ गई राति रहि सेस रचक पौ फाटन लागी । नृप के अंतिम परखन की पारी तव जागी॥ टहरत टहरत बाम अंग लागे कछु फरकन । औ ताही के संग अनायासहिँ हिय धरकन ॥३२॥ लगे चित्त मैं अनुभव होन असुभ संघाती । भई बृत्ति उच्चाट भभरि आई भरि छाती ॥ एकाएक अनेक कल्पना उठी भयानक। कियौ गुनावन भूप “भयौ यह कहा अचानक ॥३३॥