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नैन राजत कोउ अंतडिनि की पहिरि माल इतरात दिखावत । कोउ चरबी लै चाप सहित निज अंगनि लावत ॥ कोउ मुंडनि लै मानि मोद कंदुक लौँ डारत । कोउ रुंडनि पै बैठि करेजो फारि निकारत ॥ १४ ॥ ऐसे अवसर कठिन सबहिँ बिधि धीर-नसावन । नृप-दृढ़ता के कसन हेतु हरि कीन्ह गुनावन ॥ करि कापालिक बेस धर्म तब तिहि ठाँ आया। बसन गेरुआ अंग भंग के रंग समायौ ॥१५॥ छूटे लाँबे केस रतनारे। सिर सेंदुर का तिलक भस्म सब तन मैं धारे ॥ एक हाथ खप्पर चिमटा दुर्जे कर भ्राजत । गएँ हाड़ के हार सहित तरिवार बिराजत ॥१६॥ लखि नृप किया प्रनाम भए ठाढ़े सिर नाए। कयौ कपालिक "हम तुम पैं अर्थी है आए" ॥ यह सुनि नृप सकुचाइ नैन नीचें करि भाष्यो । "जोगिराज हमकौँ विधि काहू जोग न राख्यौ ॥ १७ ॥ सो बोल्या "हम जोग दृष्टि सौँ सब कछु जानत । करहु न नृप संकोच सोचि कछु यह उर ठानत जदपि भई यह दसा तदपि हम कहत पुकारे । महाराज सब काज आज करि सकत हमारे" ॥ १८॥