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इहि बिधि बिबिध बिचार करत चारिहुँ दिसि टहरत । कबहु चलत कहु चपल कबहु काहू थल ठहरत ॥ लखि मसान देवी को थल तहँ सीस नवाया। अति प्रसन्नता सहित सब्द यह तित नै आयौ ॥ ९॥ "महाराज हम पूज्य सदा चंडालनि ही की। तव प्रनाम सौं होति सुनहु लज्जित परि फीकी ॥ भई तुष्ट अति पै बिलोकि सच्चरित तिहारे । माँगहु जो बर देहि तुरत यह हृदय हमारे" ॥१०॥ बोले नृप “साँचहिँ प्रसन्न तो यह बर दीजै । सब बिधि सौं कल्यान हमारे प्रभु की कीजै॥ बहुरि भई धुनि “धन्य धर्म यह को पहिचान । साधु साधु हरिचंद कौन तुम बिन इमि ठान" ॥११॥ भई आनि तब साँझ घटा आई घिरि कारी । सनै सनै सब ओर लगी बाढ़न अँधियारी॥ भए एकठा आनि तहाँ डाकिनि-पिसाच-गन । कूदत करत कलोल किलकि दौरत तोरत तन ॥ १२॥ आकृति अति बिकराल धरे, क्वैला से कारे । बक्र-बदन लघु-लाल-नयन-जुत, जीभ निकारे॥ कोउ कड़ाकड़ हाड़ चाबि नाचत दै ताली। कोऊ पीवत रुधिर खोपरी की करि प्याली ॥ १३ ॥