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कयौ थाम्हि हिय भूप “कहा कछु हम अब कहिहैं । अच्छा प्रथम जाहु तुमही याहू दुख सहिहै" ॥ उपाध्याय सौँ कयौ बहुरि महिषी "हम चलिहैं"। पूछचौ द्विज तब "कौन काज तुम पाहिँ निकलिहैं॥२४॥ "संभाषन पर-पुरष संग उच्छिष्ट असन तजि । करिहैं हम सब काज" कह्यौ रानी धर्महिँ भजि । किया विप्र स्वीकार कह्यौ "पुत्रीवत रहियो । गृह के काम काज की सुधि छमता जुत लहिया" ॥ २५॥ यह सुनि द्विज सौं तुरत स्वर्णमुद्रा लै आई। नृप के बसन माहिँ बाँधत करुना अधिकाई ।। कयौ विप्र सौँ "कीजै क्षमा नैकुँ अब द्विजवर । लेहि निरखि भरि नैन नाह का आनन सुंदर ॥ २६ ॥ फिर यह आनन कहाँ कहाँ यह नैन अभागी"। याँ काहि बिलखि निहारि नृपति-रुख रोवन लागी॥ कयौं विप्र "हम चलत सिष्य के सँग तुम आवौ । निजुपति सौं मिलि माँगि बिदा दुख नैकु न पावो"॥२७॥ यौं कहि द्विज कौडिन्यहिँ छाँड़ि गए निज घर कौँ। सैब्या लगी पाइँ परि बिनवन नाह सुघर "दरसन हूँ दुर्लभ अब तौ लखि परत तिहारे । छमहु भए जो होहिँ नाथ अपराध हमारे" ॥ २८॥ काँ