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पुनि बानी करि उदासीन यह आज्ञा कीन्हीं। "एक मास की अवधि तुम्हें करुना करि दीन्हीं ॥ पै जो एक मास मैं सब मुद्रा नहिँ पैहै । तौ तोहि पुरुषनि संग साप दै नर्क पठेहैं" ॥ २९ ॥ "जो आज्ञा" कहि नृपति हर्षजुत सीस नवायौ । मंत्रिहिँ अपर समस्त राजकाजिन्हि बुलवायौ ॥ सब सौं सहित उछाह बिदित बेगिहि यह कीन्यौ । "हम सब राज समाज आज ऋषिराजहिँ दीन्ह्यौ ॥ ३० ॥ अब तुम इनके होहु हृदय सौं आज्ञाकारी । राज-काज इमि करहु रहै जिहि प्रजा सुखारी ॥ दारा सुअन समेत अबहिँ कासी हम जैहैं। ऋषि-ऋण सौं उद्धार-हेत बिन सोच बिकैहै ॥ ३१॥ भयौ होहि कोउ कबहुँ कूर बरताव जु हमसौं । सो सब अब बिसराइ देहु निज हिय उत्तम सौं" ॥ यह सुनि सब अकुलाइ लगे नृप-बदन निहारन । "कहत कहा यह आप" सहित स्वरभंग उचारन ॥ ३२ ॥ बेगिहिँ उठि सिंहासन काँ प्रनाम नृप कीन्ह्यौ । रोहितास्त्र बालकहिँ महिषि सैव्यहि सँग लीन्यौ ॥ चले राज तजि हरष बिषाद न कछु उर आन्यौ । भूलि भाव सब और एक ऋण-भंजन ठान्यौ ॥ ३३ ।।