बीस बाईस डंडे सीढ़ी उतरने और दस बारह कदम आगे
चलने पर सामने वाली पत्थर की दीवार में कोई खटका दया कर
ज़ोहरा ने फिर राह पैदा की और वे दोनों उस सुरंग में धंसे, जो
चार हाथ चौडी, उतनीही ऊची और दोसौ गज़ लंबी थी। उसकी
बनावट बहुतही अच्छी और चिकने काले पत्थरों की थी, जिसमें
दोनों बगल की दीवारों में तुर्की फ़ौज की मोर्चाबन्दी की तस्वीरें
बहुतही सफ़ाई के साथ खोद कर बनाई गई थीं । यद्यपि याकूब
एक सिपाही आदमी था, पर उस समय ज़ोहरा ऐसी तेजी के साथ
कदम उठाती हुई आगे बढ़ी जाती थी कि उसे उन तस्वीरों को
अच्छी तरह निरखने का समय न मिला; फिर भी जो कुछ उसने
देखा, उतनेही से उसका जी फड़क उठा और उसने मनही मन
उसके बनानेवाले कारीगर को धन्यवाद दिया।
निदान, दो सौ गज लांबी राह बात की बात में तय होगई और फिर सामने चिकने पत्थर की दीवार नज़र आई । जोहरा ने वहां पर भी किसी हिकमत से राह पैदा की और तब वे दोनों उसके अन्दर घुसे । कुछ ही दूर जाने पर ऊपर चढ़ने के लिये सीढ़ियां नज़र आईं और वे दोनों ऊपर चढ़ने लगे। उस समय भी आगे आगे ज़ोहरा ही थी।
पचास सीढ़ियां चढ़ कर वे दोनों एक छोटी और चौखूटी कोठरी में पहुंचे। वहां पहुंच कर ज़ोहरा ने कहा,--
हज़रत ! अब बेगम साहिबा के रू ब रू आप दाखिल हुआ ही चाहते हैं, इसलिये मेहरबानी करके अब तो बत्ती बुझा दीजिए।"
याकूब,-" तावक्त कि बेगम साहिबा न दिखलाई दें, मैं बत्ती हर्गिज़ न बुझाऊंगा।
आखिर, ज़ोहरा ने सामने की दीवार में का कोई खटका दबाया, जिसके-दबातेही एक हलकी आवाज़ के साथ वहांका पत्थर जमीन के अन्दर समा गया और सामने एक आलीशान कमरे के अन्दर गावतकिए के सहारे मसनद पर ज़रा लेटी हुई सी रजीया दिखलाई पड़ी।
हिन्दुस्तान की सुलताना, रज़ीया बेगम की ख़ाबगाह का वर्णन हम,-झोपड़े में रहने वाले-क्यों कर, करसकते हैं! किन्तु यह मसल मशहूर है कि,-" सोवें झोपड़े में और सपना देखें महलों का।,
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