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(बारहवां
रज़ीयाबेगम।


ज़ोहरा,-" माज अल्लाह ! यह शान ! यह ज़िद ! खैर, तो आप आंखों पर पट्टी न बांधने देंगे

याकब,-" हर्गिज़ नहीं; क्योंकि मैंने अपनी आजादी फ़कत बेगम साहिबा के हाथ बेची है, इसलिये मैं उतनाही करने के लिये 'मज़बूर हूं, जितना कि उन्होंने अपने हुक्मनामे में लिखा है।"

यह सुन कर जोहरा चुप हो गई और एक, हलकी आवाज़ याकूब के कानों में पहुंची, जिसे सुनतेही वह चौंक उठा और उसने चट अपने जेब में से मोमबत्ती निकालकर जलाई; क्योंकि उस समय तक वे दोनों अंधेरे--बलिक घने अंधेरे में बात चीत कर रहे थे।

बत्ती के जलतेही याकूष ने क्या देखा कि, एक लतामंडप के अन्दर खड़े हैं, एक संगमर्मर के चबूतरे के ऊपरवाला पत्थर उसके भीतर झूल गया है और उसके पास ज़ोहरा खड़ी है।' उंजेला होतेही जोहरा कुछ भल्लाई और कहने लगी,-

"आपने बत्ती किसके हुक्म से जलाई? "

न अलानेही का हुक्म किसने दिया था?

जोहरा,-"खैर,आइए, इसके अन्दर चलिए; यह एक सुरंग है, जिसमें उतरने के लिये सीढ़ियां बनी हुई हैं।"

यह सुन कर याकूब ने झांक कर उसके अन्दर देखा तो सच- मुच सीढ़ियां बनी हुई थीं। उन्हें देख, उसने ज़ोहरा से कहा,- पेश्तर आए उतरिए।

ज़ोहरा,-"क्या आपको पहिले कदम बढ़ाने में कोई उज़ है ? " याकूब, घेशक ! जब कि हुक्मनामे के बमुजिब आपही को आगे रहना होगा!"

जोहरा,-"ऐसा हुक्मनामे में कहां लिखा है?

याकूब,-"यह आपकी समझ का बोदापन है ! देखिए जब कि आप मुझे कहीं ले जा रही हैं तो हर हालत में आपही को आगे रहना होगा; बस उस लिखावट का यही मतलब है।"

याकूब की बातों से ज़ोहरा ने अच्छी सरह यह बात समझ ली कि गुलाम होने पर भी याकूब कोई मामूली आदमी नहीं है ! आखिर, पहिले वही उम्म सुरंग में आगे उत्तरी और उसके पीछे पीछे हाथ में जलती बत्ती लिए हुए याकूब उतरा।