पृष्ठ:रज़ीया बेगम.djvu/८७

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परिच्छेद)
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रङ्गमहल में हलाहला।


निदान, बेगम की इस आशा से ज़रख़रीद लौंडी जोहरा एक दम उछल पड़ी और बेगम के तलवे का बोसोले, फिर अपनी जगह पर बैठ गई और बोली,--

"हुजूर ! तो मैं कौनसी ख़िद्मत करूं?"

रज़ीया,- ( उसका हाथ अपने हाथों में लेकर ) "खुदा के वास्ते यह राज़ किसी पर ज़ाहिर न होने पावे । ख़बर ! वर न मेरी रुसवाई का कहीं ठिकाना न रहेगा और तू भी बड़ी भारी जिल्लत उठावेगी।"

ज़ोहरा,-" हुजूर ! मैं अल्लाह को दर्मियान में रख कर और कुरान शरीफ़ की कसम खाकर कहती हूं कि लौडी तामन किसी बात को भी किसी पर ज़ाहिर न होने देगी।"

रज़ीया,-" देख, ज़ोहरा! इस बादशाहत, इस हुकूमत, इस शान शौकत और इस मर्तबे को पाकर भी मुझे या मेरे दिल को ज़रा भी चैन या आराम नहीं ! यह क्यों! क्या औरत होकर तू इस सवाल का जवाब आसानी से नहीं दे सकती ? अच्छा सुन ! मैं ही कहती हूं;-देख! प्यारी, जोहरा! किसी भी औरत के लिये एक दिलदार मर्द का होना पहुत ज़रूरी है; क्योंकि अगर किसी खुशमिजाज औरत के पास कोई खूबरू मर्द न हो, या किसी दिल- दार मर्द को कोई हसीन और तबीयतदार औरत मयस्सर न हो तो उस औरत या मर्द की ज़िन्दगी बेकार ही नहीं, बल्कि जवाल भी हो जाती है।"

ज़ोहरा,-" बेशक, हुजर ! यह बात तो बिल्कुल सही है। लौंडी तो कई मर्तबः यह अर्ज किया चाहती थी कि हज़रत अपनी शादी करें; मगर मारे खौफ़ के कोई कलमा ज़बान से बाहर नहीं निकाल सकती थी।"

रजीया,--"सुन, ज़ोहरा! शादी के निस्वत जो तूने कहा, यह तेरा खयाल महज़ा ग़लत है । अगर तू शाही खान्दान के कायदे से बखूबी आगाह होती तो शायद 'शादी' का लफ़्ज जबान से न निकालती। प्यारी, ज़ोहरा! शाही खान्दान के कायदे के बमूजिब शाहज़ादियाँ और मुझ जैसी बदनसीब बेगमों को शादी कहां नसीब है !!! मगर फिर भी दिल शाद करने और तबीयत में नई जान डालने के लिये एक दिलदार शख्स़ की निहायत ज़रूरत है; सो