पृष्ठ:रज़ीया बेगम.djvu/८५

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परिच्छेद)
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रङ्गमहल में हलाहल।


और सादी परन्तु बेशकीमत पोशाक पहिरकर वह अपनी सहे- लियों के साथ बाग़ में टहलने आई । हुक्का लिये हुई ज़ोहरा भी उसके साथ थी।"

बेगम साहिबा के बाग में तशरीफ़ लाने की खबर पहिलेही से कर दी गई थी, इसलिये बाग़ के काम करने वाले बाग़ से बाहर हो गए थे; फ़क़त मालिने बड़ी मुस्तैदी के साथ बाग़ की सफ़ाई और दुरुस्तगी के काम में लगी हुई थीं।

प्रताप या प्रभुत्व ऐसा विलक्षण है कि जिसके कारण इतने तड़के बाग में आने पर भी बेगम ने जिधर नज़र उठाकर देखा, उधर ही सफ़ाई देख पड़ी और यही जान पड़ने लगा कि अभी अभी बाग़ में सफ़ाई की गई है।

बाग़ में आते ही सब मालिनों ने बदस्तूर आ आकर सलाम किया और फूलों की डालियां तालाब के किनारे, जहां पर बेगम वाग में घूम फिर कर ज़रा बैठकर सुस्ताती थी, एक संगमर्मर की चौकी पर चुन दी और फिर सब अपने अपने कामों में लग गईं।

बेगम बाग़ में आकर कुछ देर तक इधर उधर टहला की; फिर उसने गुलशन और सौसन से कहा,--

"सखी ! तुम दोनों आज एक काम करो। वो यह कि तुम दोनों एक दूसरी से अलग होकर बाग़ के जुदे जुदे हिस्से में जाकर खुद अपने हाथों से फूल बीन लाओ और मैं यहां पर गुलेनर्गिस का चुनती हूँ। इस काम के लिये वक्त फ़क़त एक घंटे का दिया जाता है । फिर तुम सभोंके इकट्ठे होने पर इस बात की जांच की जायगी कि ज़ियादह फूल किसने बीने।"

“जो हुक्म हुजूर ! ” यों कहकर सौसन और गुलशन वहांसे चली गईं और बेगम एक मौलसिरी के पेड़ के नीचे एक संगमर्मर की चौकी पर, जिसपर मखमली गद्दी बिछा दी गई थी बैठ गई और उसका इशारा पाकर ज़ोहरा उसके सामने एक संदली चौकी पर बैठी।

रज़ीया ने दो चार कश हुक्के के खेंचे और ज़ोहरा से आँखें मिला कर बड़ी आजिजी से कहा,-

" प्यारी, ज़ोहरा ! तू क्या यह बात दिल से नहीं चाहती कि,-- 'मेरी मिहरबान बेगम को खुदा किसी तरह का सदमा न दे !'