ग्यारहवां परिच्छेद.
इश्क या फ़ज़ीहत।
वे मोहब्बत,ये इनायत, ये इतायत कैसी?
ये खुशामद, ये लजाजत, ये समाजत कैसी ?
इस खुशामद का मोअम्मा नहीं मुझ पर खुलता!
ग़ौर करता हूँ, मगर कुछ न समझ में आता!"
(क़लक़)
क्या पाठकों को वह बात याद है, जो इस उपन्यास के चौथे परिच्छेद में रज़ीयावेगम ने अपनी सहेली से कही थी कि,-" सौसन! इस वक़्त मैं तेरी उन दलीलों से, जो कि तू गुलशन के साथ कर रही थी, निहायत खुश हुई हूं और खुदा चाहेगा तो बहुत जल्द मैं तेरी ख़ाहिश बमू- जिव उन गुलामों को गुलामी से आज़ाद कर शाही दर्वार में कोई अच्छा वहदा दूंगी, जिससे वे दोनों मेरी नेकनीयती, कदरदानी, फ़ैयाज़ी और ग़रीबपर्वरी को ताज़ीस्त न भूलेंगे।"
और यह भी पाठकों को याद होगा कि पांचवें परिच्छेद के अन्त में बेगम की बेकली कैसी दिखलाई गई है कि बार बार कर- घट बदलने पर भी उसे नींद नहीं आती थी । अस्तु हम उसीके दूसरे दिन की एक घटना का हाल यहां पर लिखते हैं, जिससे पाठकों को त्रैलोक्यमोहिनी, परमस्वाधीना, भारताधीश्वरी, पूर्ण- युवती और कुमारी रज़ीयाबेगम के स्वतंत्र स्वभाव का बहुत कुछ परिचय मिलेगा।
प्रातःकाल का समय है और सूरज निकलने में अब थोड़ी ही देर है। रात को ज़ियादह ठंड पड़ने से चारोंओर कुहरा छाया हुआ है, किन्तु ऐसे अवसर में भी तड़के की ठंढी और नीरोग हवा खाने और बाग में चहलकदमी करने का जिसका जी न चाहे वह मनुष्य ही नहीं है।
पलंग से उठते ही रज़ीयाबेगम ने हाथ मुंह धोकर कपड़े बदले