बच सकता?"
इस पर ज़ोहरा ज़मीन की ओर देखती हुई कुछ देर तक चुप रही, फिर कहने लगी,-
"सिर्फ़ एकही सूरत है, कि जिससे तुम्हारी जान बच सकती हैं।
अयूब,—(जल्दी से ) “वह कौनसी सूरत है ! बराहे मिहर- बानी, जल्द फ़र्माईए।"
जोहरा,-" यही कि किसी ढब से तुमको यहांसे बेदाग़ निकाल दूं और तुम्हारे एवज़ में मैं अपना सर गवाऊं।"
अयूब,-"हर्गिज़ नहीं; मैं यह हर्गिज नहीं चाहता कि मेरी जान के बदले एक बेगुनाह औरत की जान मुफ्त में जाय ! इससे तो मैं अपना सिर गंवाना ही बिहतर समझता हूँ।"
ज़ोहरा,-" खैर जैसी खुसी तुम्हारी; तो अब मैं तुमको बेगम साहिबा के रूबरू पेश करूं न?"
अयूब,-( हाथ मलकर ) "अफ़सोस ! जब कोई चाराही नहीं तो फिर जो मुनासिब समझिए, कीजिए । या इलाही ! मेरे नसीब में यह भी था!!!"
अब अयूब की बेचैनी हद्द दर्जे को पहुंच गई थी और उसकी आंखों से आंसू बहने लग गए थे । उसकी यह हालत देख कर जोहरा के ओठों पर मुस्कुराहट नाच उठी और उसने यों कहा,- "सुनिए, साहब ! एक दूसरा तरीका मुझे अभी और सूझा है। जिससे आप और हम -दोनों की जाने बच सकती हैं।"
अयूब,-(उसके चेहरे की ओर देख कर ) “वह कौनसा दूसरा तरीका आपने सोचा है!"
जोहरा,-"वह, यही है कि आपके साथ मैं भी यहांसे निकल भागू।
अयूब,-(ताज्जुब से ) "क्या आप भी मेरे हमराह होंगी?"
जोहरा,-( उसे धूरती हुई)सिवा इसके और कोई सूरत नहीं है कि आपके धड़ पर सर कायम रह सके ! सुनिए, बात यह हैं कि किसी बांदी ने अभी बेगम साहिबा के कानों तक यह ख़बर पहुंचाई है कि,-' एक शख्स बाग़ की फलां जगह पर छिप कर बैठा हुआ है और ओट में से औरतों को तक रहा है।' इस ख़बर