ऐसा न हो तो फिर यह सिफत गुलबदन में क्योंकर आवे!"
अयूब,-लिल्लाह ! आप कोई हों, अगर कोई हर्ज वाक़ः न हो तो बराहे मेहरबानी सामने आइए; यों छिपकर निशाना मारना मुनासिब नहीं !"
फिर किसीने कहा,--"वल्लाह, क्या कहना है ! जान न पहि- चान बड़ी बी सलाम ! अजी हज़त ? आपसे और मुझसे क्या ताल्लुक है, जो मैं आपके सामने अपने तई ज़ाहिर करूं?"
अयूब,-"खुदा के वास्ते मुआफ़ कोजिएगा। शुरू शुरू छेड़छाड़ आपही ने निकाली थी, वरन बन्दा कुछ न कहता । खैर, तो क्या मैं इस बात की उम्मीद करूं कि आप मुझे मुआफ़ करेंगी !"
फिर किसीने जवाब दिया,-" मुआफ़ी ! मुआफ़ी चाहिए आप को ! बिहतर! मुआफ़ो के एवज मे आप क्या ज़रीबाना देंगे।
अयूब,--हज़त ! अपनी औकात के मुआफ़िक सभी कोई कुछ न कुछ देताही है। लिल्लाह ! बंदा भी अपनी गुलामी हुजूर की नज़र करेगा।"
फिर किसीने कहा,- अल्लाह आलम ! इस जवाब का तर्ज तो देखो ?"
अयूब,-" खैर, आपही कुछ फ़र्माएं कि फिर किस ढब से यह मामला तय किया जाय?" फिर किसीने जवाब दिया, क्या, इस बात का फैसला आप मेरी मर्जी पर छोड़ सकते हैं।"
अयूब,-"बिला उज़"।
फिर आवाज़ आई,-" वगैर समझे बूझे, आप ऐसा वादा किस उम्मीद पर कर रहे हैं?"
अयूब,-" बस, ज़ियादह नखरे न कीजिए, बराहे मेहरबानी अपना रुखसार दिखलाकर दिलेनाशाद को शाद कीजिए। अगर मेरी अकल मेरे साथ दगा नहीं कर रही है तो मैंने आवाज़ से अब आपको बखूबी पहचान लिया । खुदारा, आइए, तशरीफ़ लाइए; अब इस तरह टट्टी की ओट में अपने तई छिपाए रहना, या सामने न आकर दूर ही से यों तीरंदाजी करना क्या आपको लाज़िम है?"
फिर आवाज़ आई,-'अख्खा! आख़िर, आपका इरादा क्या है ?" अयूब;-" सुनिए,-