लेकर सोलह बरस तक कई बार हिंदुस्तान पर चढ़ाई की, किंतु कुछ फल न हुआ। फिर कन्नौज के देशशत्रु राजा जयचंद के बह- काने से शहाबुद्दीन ने सन् ११९१ ई० में दिल्ली के चौहान राजा पृथ्वीराज पर बड़ी धूमधाम से चढ़ाई की, पर पृथ्वीराज से हार कर अपने देश को वह लौट गया । सन् ११९३ ई० में वह फिर बड़ी धूम से दिल्ली पर चढ़ा और हिंदुओं की सेना भी बड़े उमंग से उसका सामना करने के लिये मैदान में आई । उस समय चित्तौर के समर सिंह हिंदू सेना के नायक थे। लड़ाई की मोरचा. बंदी होने पर शहाबुद्दीन ने रङ्ग, कुरङ्ग देख, टेढ़ी चाल चली और सुलह की बात चीत होने लगी । शहाबुद्दीन ने कहा कि,-'मैने अपने भाई को यहांका हाल लिखा है, वहांसे जवाब आने तक लड़ाई मौकूफ़ रहे ।' हिंदू सेना इस बात पर विश्वास करके सुचित्त होगई थी, कि एकाएक उस दगाबाज़ शहाबुद्दीन ने धोखा देकर रात के समय छापा मारा । उस धोखेबाज़ी में शहाबुद्दीन की बन आई, क्योंकि बहुत से हिन्दूवीर और सेनापति समरसिंह मारे गए और पृथ्वीराज तथा उनके कवि चंद घरदई कैद करके ग़ज़नी भेज दिए गए । वहां जाकर पृथ्वीराज ने शहाबुद्दीन के भाई ग़यासुद्दीन को शब्दवेधी बाण से मारडाला, फिर आप्प और चंद ने एक दूसरे के बाण से अपने अपने प्राण देदिए । हा! यह वही समय था, जिस घड़ी भारत की स्वाधीनता का सूर्य सदा के लिये अस्त होगया । हा ! देश को पराधीनता की बेड़ी पहिराने के पातक के अतिरिक्त जयचन्द के हाथ कुछ भी न लगा, क्यों कि उसके राज्य को भी शहाबुद्दीन ने बुरी तरह से लिया और वह ( जयचन्द ) मारागया । किसीने सच कहा है कि फूट दोनों को चौपट करदेती है।
शहाबुद्दीन हिन्दुस्तान के जीतने पर यहांकी निगरानी के लिये अपने गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक को छोड़ता गया था। फिर जब शहाबुद्दीन मारागया तो उसका भतीजा महमूद ग़ोरी ग़ज़नी के तख़्त पर बैठा, और हिन्दुस्तान पर कुतुबुद्दीन ऐबक का कवजा रहा । समय की बलिहारी है कि भारतवर्ष के राजेश्वरों का राज्य एक गुलाम के आधीन हुआ।
कुतुबुद्दीन ऐबक को शहाबुद्दीन के भतीजे महमूद ग़ोरी ने बाद- शाह का खि़ताब भेज दिया, जिससे वह गुलाम हिन्दुस्तान के ,