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(सातवां
रज़ीयाबेगम


निदान, जब हरिहरशर्मा बुड्ढे फ़कीर को दोना भर प्रसाद देने लगे तो उसने अपने एक शार्गिद को इशारा किया, जिसने प्रसाद का दोना ले लिया । फिर दोनों शार्गिदों को भी दो दोने दिए गए । इसके बाद बुड्ढे ने अपनी झाली में से एक पोटली निकाली और उसे हरिहर के हाथ में देकर कहा,-"आप ज़रा इसे अकेले में लेजाकर, खोलकर देखिए।"

यह सुन और पोटली लेकर हरिहरशर्मा वहांसे चले गए,तब वह फ़कीर भी अपने दोनों शार्गिदों के साथ वहांसे चलता बना।

हरिहरशर्मा ने निराली कोठरी में जाकर उस पोटली को खोला तो उसके अन्दर से चांदी का एक गोल डब्बा निकला. जिसके खोलतेहो एक हलकी चीख़ मार कर हरिहरजी सन्नाटे में आगए। तो उस डब्बे में क्या था ? सुनिए, दो लाख रुपये की लागत के दो पन्ने के हार थे, जो कि श्रीराधाबिहारीजी के लिये उस बुड्ढे फ़कीर ने दिए थे; और उसी डब्वे में फ़ारसी में लिखा हुआ एक ख़त भी था, जिसे पढ़ते ही हरिहर पागलों की तरह उठ खड़े हुए और कोठरी में से निकल, दौड़े हुए उस जगह पर आए, जहां पर उन तीनों फ़क़ीरों को वे खड़े कर गए थे; किन्तु अब वहां पर फ़कीरों का नाम निशान भी न था, क्योंकि वे तीनों उसी समय वहांसे चल दिए थे। फिर तो हरिहरजी ने वहां पर जितने लोग खड़े थे, सभोंसे अलग अलग उस फकीर के विषय में बहुत कुछ पूछा और मन्दिर के बाहर निकलकर दूर दूर तक फ़कीर को ढूंढा, पर उसका कहीं कोई पता न लगा। लाचार, वे आधी रात के समय मन्दिर में लौट आए और उन्होंने वे दोनों हार श्रीठाकुरजी को उसी समय पहिरा दिए, पर उचके पाने का, या उस ख़त का हाल कुछ भी किसी पर प्रगट न किया।

पाठकों ने शाही दर्बार के कठोर दंड का हाल पढ़ा होगा, इसलिये वे कदाचित इतने कठोर दंड को अच्छो न समझते होंगे! किन्तु हमारी समझ से अपराध की संख्या घटाने में जैसा कठोर दंड हेतु हो सकता है, वैसा साधारण दंड नहीं; यही कारण है कि महर्षियों ने अपराधों के लिये कठोर दंड की व्यवस्था की है; हम उसी पक्ष को मानते हैं।