दिवाली का भूमि उपजाती है । इस तमाशे को दूर से खड़े खड़े वे तीनों फ़क़ीर भी देख रहे हैं, जिनके विषय में हम पहिले कुछ लिख आए हैं।
हरिहरशर्मा इस उत्सव में यद्यपि तन मन से लगे हुए हैं, पर उनकी दृष्टि चारों ओर दौड़ रही है। ज्योंही उन्होंने दूर पर खड़े हुए उस बुड्ढे फ़क़ीर को देखा, त्योंहीं वे दौड़े हुए उसके पास चले गए और वे उसे गले लगायाही चाहते थे, कि बुड्ढा पीछे हट गया और बोला,-" अजी! पंडतजी ! बंदा मुसलमान है!
हरिहर,-( उसका हाथ पकड़ कर ) "आप जैसे योग्य और सज्जन मुसलमान पर कड़ोरों हिन्दू निछावर हो सकते हैं। चलिए, आज श्रीठाकुरजी का प्रसाद पाइए; क्योंकि आपने ऐसा वादा भी किया था कि,-" दूसरे दिन लूंगा।"
बुड्ढा फ़कीर,-" अगर आप मुझे पहिले अपने ठाकुरजी की सूरत दिखलाइए, तब मैं परशाद लूंगा।"
हरिहर,--"आइए।"
इतना कहकर हरिहरशर्मा ने उस बुड्ढे और उसके दोनों शार्गिदों को मंदिर के बाहरी सहन में ऐसी जगह पर लेजाकर खड़ा कर दिया कि जहांसे श्रीवृन्दावन-बिहारी, श्रीराधावल्लंभ की बांकी छटा का भली भांति दर्शन होता था। भला, ऐसी शोभा, यह भाब, ऐसा हरिकीर्चन और इस प्रकार का आनन्द उस बुड्ढे ने कभी काहे को देखा होगा ! सो वह कुछ चकित सा हो, अपने दोनों शार्गिदों के साथ हंस हंस कर फ़ासी में बातें करने लगा । उन मुसलमान फ़क़ीरों का मंदिर के बाहरी सहन में आना यद्यपि किसी किसी आग्रही हिन्दू को अच्छा नहीं लगा था, पर यह किसकी मजाल थी, कि जो हरिहरशर्मा की इच्छा के विरुद्ध ओठ फड़का सकता! तिल पर सारे शहर में यह बात फैल गई थी कि,-'इसी फकीर ने उन बलवाइयों के हाथ से इस मंदिर और यहां के ब्राह्मणों की जान बचाई है;' इसलिये हिन्दू उस बुड्ढे को स्नेहभरी दृष्टि से देखते और सलाम करते थे; पर हरिहरशर्मा की आज्ञा से कोई भी न तो बुड्ढे से बातें करने पाता; और न पास जाने पाता था। यह प्रबंध इसीलिये किया गया था कि जिसमें कोई हिन्दू इस लाइक फ़क़ीर के साथ कुछ अनुचित बर्ताव न कर बैठे।
(७) न०