भी था। हां! इतना सुभीता उस समय अवश्य था कि न इतना स्टाम्पों का खर्च था, न वकील मुख़तारों की खैंचातानी थी, न मुद्दत तक मुकद्दमा झूला करता था और न मुद्दई मुद्दालह के लिये आज कल की भांति अत्यन्त कष्ट उठाना पड़ता, या सर्वस्व खोना पड़ता था। उस समय घूस भी अवश्य चलती थी और न्याय का अन्याय, और अन्याय का न्याय भी प्रायः होता था, पर सच्चा न्याय भी अवश्य होता था। उस समय स्टाम्पों की भरमार, वकील मुख़तारों के उत्पात और मुहर्रिरों की तहरीरी रसूमात का उलझेड़ा न था, और लोग सादे काग़ज़ पर अर्ज़ी लिख कर पेश करते थे और कहीं कहीं अपना उजु जबानी ही कह सुनाते थे; जिस पर जो कुछ फैसला होने को होता, वह या तो उसी समय हो जाता, या कई दिनों के भीतर ही खूब छान बीन के साथ उसका कुछ न कुछ निबटारा होही जाता था, पर आज कल की तरह वह ख़र्च इतना बढ़ा चढ़ा न था कि लोगों को अखरता, या तबाह कर डालता।
आज हम सुल्ताना रज़ीया बेगम के दर्बार, या शाही कचहरी के इन्साफ़ का दो एक नमूना पाठकों को दिखलाते हैं, जिससे पाठक उस समय की अदालत का कुछ कुछ हाल जान सकेंगे।
प्रतिदिन आठ बजे से बारह बजे दिन तक सुल्ताना रज़ीया बेगम दर्बार करती थी। जब वह दर्बार में आती, मर्दानी पोशाक पहिर कर; अर्थात् क़बा और ताज पहिर कर तख्त़पर बैठती थी। उस समय उनकी दोनों सहेलियां-सौसन और गुलशन-भी मर्दानी पोशाक में रहतीं और तख़्त के पीछे नंगी तल्वारे लिये हुए जो सौ के लगभग खुबसूरत तातारी बांदियां खड़ी होती, वे भी मदोनी ही पोशाक पहिर कर।
शाही दर्बार हाल बिल्कुछ संगमर्मर पत्थर का बना हुआथा। वह दो सौ हाथ लंबा और डेढ़ सौ हाथ चौड़ा था। उसमें अस्सी खंभों की तेहरी कतारें थीं, जिन पर संगमर्मर की साफ़ और चिकनी पटिया का पटाव था। दर्बार में पहुंचने के लिये तीनों ओर पच्चीस पच्चीस डण्डे की सीढ़ियां बनी थीं और चौथी ओर से वह महल सरा से मिला हुआ था। महल की दीवार से सटा हुआ, बीचोबीच चार हाथ ऊंचा संगमर्मर का एक चौखूटा चबूतरा बना हुआ था।