इतना सुनतेही अठारह उन्नीस बरस का एक परम सुन्दर पट्टा अखाड़े में आया, आतेही उसने पहिले बेगम और अपने उस्ताद वीर युवक को सलाम किया । इतने ही में रंगभूमि के प्रवन्धकर्ता ने दो बहुतही अच्छी तल्वारे ला दी, जिनमें से एक उस युवक ने आपली और दूसरी अपने शागिर्द को दी।
हाथ में तल्वार लेने भर की देर थी, फिर तो दोनों इस तरह पैंतरा बदलने, और वार करने लगे कि दोनों तल्वारों का मण्डल सा बँध गया और उनकी चमक विजली की तरह चमकने लगी। देखनेवालों में बहुत थोड़े मनुष्य ऐसे थे, जिन्होंने ऐसा अजूबा खेल कभी देखा होगा!
रजी़या ने इस कर्तब को देख, बहुतही खुश होकर कहा,--
'देख, सौसन ! भई ! सच बता; ऐसा अजीब तमाशा तूने कभी देखा था?"
सैसन,-"हुजूर ! कसम खुदा की, देखना तो दूर रहा, लौंडी ने कभी इसका ख्वाब भी नहीं देखा था । माशाअल्लाह ! क्या सफ़ाई है, कैसी खूबी है कितनी फुर्ती है,और किस कदर मश्शाकी है कि काबिल बयान नहीं।"
रज़ीया,-"बेशक, तू. सौसन ! खूब दिल लगाकर यह तमाशा देख रही है, जोकि तेरी बातों, और चेहरे से साफ़ ज़ाहिर होता है (गुलशन से) और तू, गुलशन! तू ! इस तमाशे को कैसा समझती है?"
गुलशन,-'सुलताना ! मैं क्या अर्ज करूं! इस जवांमर्द का शागिर्द तो-मआज़अल्लाह !-
रज़ीया.-"ऐं! कहते कहते, तू रुक क्यों गई,गुलशन!"
गुलशन,-"हुजूर! यह शागिर्द तो उस्ताद से भी बढ़ा चढ़ा नज़र आता है।"
सौसन,-"वाह, बी ! खूब समझदारी ख़र्च की, यहां पर तुमने! लाहौलबलाक अत ! अजी, बी! कहां उस्ताद और कहां शागिर्द ! तुम तो, बी! ज़मीन और आस्मान के कुलावे मिलाने लगी !!!"
रज़ीया ने सौसन की बात से प्रसन्न होकर कहा,-"बेशक, सौसन ! वाकई ! तू निहायत अकलमन्द औरत है। तूने यह बहुतही सही कहा कि, 'कहां उस्ताद और कहां शागिर्द !' फ़िल हक़ीक़त!