बेगम साहिबा ही की तरह पर्दे के पावन्द न थीं और तमाशा देखने के लिये आरही थीं, तातारी बांदियां नियत थीं, जो आई हुई स्त्रियों को उनकी प्रतिष्ठा के अनुसार उचित स्थानों पर बैठातों और प्रबन्ध करती थीं।
पहर दिन चढ़ते चढ़ते सारी रंगभूमि तमाशा देखनेवालों से भर गई, तब रंगभूमि के फाटक पर बहुतही सुरीली शहनाई, बजने लगी और किले की बुर्ज पर से तो दगने लगीं, जो जल से में बेगम साहिबा के तशरीफ़ लाने की सूचना देती थीं।
आध घंटे के अन्दर 'जमुर्रद महल' की बारहदरी में आकर रजीया बेगम जड़ाऊ तख़्त पर बैठ गई, उसके अगल बगल मखमली कुर्सियों पर उसकी दोनों सहेलियां बैठी और सैकड़ों खूबसूरत बांदियां नंगी तलवारें लिये हुई बेगम साहिबा के पीछे आ खड़ी हुई । आज बेगम और उसकी सहेलियां जनानी पोशाक में थीं; जिनके बैठने से परिस्तान का आलम नज़र आता था।
बेगम साहिबा के आतेही सभी स्त्री पुरुषों ने अपने अपने स्थानों पर खड़े हो हो कर शाहानः सलाम किया और फिर इशारा पाकर सब अपनी अपनी जगह पर बैठ गए । लाख पचास हज़ार आदमी इकट्ठ थे, पर प्रबन्ध और दबदबे की यह खूवी थी कि सूई गिरने का भी शब्द सुन पड़ता था और यह किसीकी भी सामर्थ्य न थी कि कोई किसी स्त्री की ओर ज़रा आंख उठा कर तो देखे।
निदान, फिर तो शहनाई के बदले नगाड़े बजने लगे और अखाड़े के घिरे दुए तथा सूने मैदान में बड़े भारी डील डौल का भैंसा छोड़ा गया । पिंजड़े से छूटते ही वह रंगभूमि को रौंदता, रंभाता, उछलता, कूदता और पैनी सींगों को नवाकर इधर उधर दौड़ता फिरता था। भीड़ में बिल्कुल सन्नाटा था, केवल ढक्क की कर्कश ध्वनि आकाश पाताल को एक किए देती थी । देखनेवालों की दृष्टि उस काल सरीखे भयानक भैंसे पर लगी हुई थी, इतने ही में कई दिनों का भूखा शेर पिंजड़े से छोड़ा गया और छूटते ही वह बड़े ज़ोर से गरज कर भैंसे पर लपका । भैंसे ने अपनी पैनी सींगों पर शेर को रोक, बात की बात में उसे ज़मीन में देमारा और तुरत सींगों से उसके पेट को फाड़ डाला। थोड़ी देर तक शेर तड़पता रहा, अन्त में वह मरगया और मजदूरे उसकी लोथ को रंगभूमि
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