इतर, लाइची और पान देती है और सभों से मधुर सम्भाषण करती हुई जबानशीरों से यों फ़र्माती है कि,-'साहब ! इस तख्त या सल्लनत की पायदारी आप ही लोगों की मिहरबानी पर मौकूफ़ है।"
निदान, उस दिन के दर्बार का जलसा बड़ी खूबी के हाथ पूरा हुआ। दूसरे दिन तीसरे पहर के समय सुल्ताना की सवारी बड़े धूमधाम से शहर में निकली, जिसकी शोभा का अनुभव केवल चेही कर सकते हैं, जिन्होंने महाराज सप्तम एडवर्ड के राजसिंहा- सन पर बैठने के समय दिल्ली दर्वार में लाट कर्जन की सवारी का जलूस देखा होगा।तीसरे दिन नाच रंग का बाजार गर्म हुआ और शहर भर के जितने कत्थक, कलावत, रंडियां, भांड, भगतिये थे, सभोंने अपने अपने गुणों के अनुसार इनाम पाया। योंहीं पंदरहियों तक एक न एक जलसे तमाशे हुआ किए, जिनमें से एक दिन के तमाशे का हाल हम आगे के परिच्छेद में लिखते हैं, जिससे पाठक लोग रज़ीया के स्वाधीन और पुरुषायित हृदय का कुछ कुछ परि- चय अवश्य पावेंगे और यह भी समझ सकेंगे कि मुसलमानों में पर्दे की चाल जितनी बढ़ी चढ़ी है, रजीया उतना ही उसके बिरुद्ध आचरण करती थी।