पृष्ठ:रज़ीया बेगम.djvu/११९

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परिच्छेद
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रङ्गमहल में हलाहल


तुम्हारे किले के अन्दर ही है।"

रज़ीया,-"मुझे तुम मेरी ख़ाबगाह से उठा लाए?"

नकाबपोश,-" हां, मगर बेहोश कर के, जो बेहोशी, यहां लानेपर दूर की गई।"

रज़ीया,-" खैर तो आओ, मेरे पास बैठो, अपने चेहरे से नकाब हटा दो और अपना पता दो कि तुम कौन हो?"

नकाबपोश,-" ये तीनों बाते; यानी तुम्हारे पास बैठना, नकाब उलटना और अपना हाल बयान करना, तबतक नहीं हो सकता, जबतक कि तुम मेरे साथ निका़ह न करलो।"

रज़ीया,-" भला सोचो तो सही कि जबतक तुम्हारी सूरत न देखलू और तुम्हारा पता न पालूं, तुम्हारे साथ मैं क्योंकर निकाह कर सकती हूं ?"

नकाबपोश,-" इसकी कोई ज़रूरत नहीं है, क्योंकि निकाह होजाने के बाद तुम पर मेरा कोई भी हाल छिपा न रह जायगा। इसलिये बिल्फेल, तुमको अपने तई मेरी मर्जीही पर छोड़ देना चाहिए।"

रज़ीया,--"यह तो बड़ी ज़बर्दस्ती है !!!"

नकाबपोश,-" बेशक ऐसाही है और इसमें तुम्हारी भलाई छोड़ कर बुराई हगिज़ नहीं होगी।"

रज़ीया,--"ख़ैर तो वह काज़ी कहां है, जो निकाह की रस्में पूरी करेगा ?

नकाबपोश, उस काम को, जो कि काज़ी करता है, मैं खुद बखुद बड़ी आसानी के साथ पूरा कर लंगा।

रज़ीया,-" ख़ैर, तो एक रोज़ की मुझे मुहलत दो, फिर जो कुछ तुम कहोगे, उसमें मुझे कोई उज़ न होगा।

नकाबपोश,-" जी हां! मैं ऐसा ही बेवकूफ़ तो हूं कि आपको आज़ाद कर दूंगा ! अजी हज़त ! मेरे हाथ से ये हाथ हो कर क्या फिर आप मेरे हाथ कभी लग सकेंगी?"

रजी़या,-"वाह ! यह क्या बात है? भई ! सच तो यह है कि मैं तुम्हारी दिलेरी, मर्दमी और ताक़त देख कर निहायत खुश हुई हूं; इसलिये इस बात का तुम यकीन रक्खो कि अब सिवा तुम्हारे मेरे दिल में किसी दूसरे को जगह न मिलेगी।"