याकूब,-"वेशक आपको इसका पूरा अख्तियार है; मगर फिर
भी आप मुझ जैसे किसी गुलाम को अपने हकीकी बिरादर
के रुतबे या दर्जे तक नहीं पहुंचा सकतीं।"
रज़ीया,-(कहकहा लगा कर ) " मआज़ अल्लाह मिनहा ! यह तुम क्या बकने लगे! अजी ! मुझे तो यहां तक अस्तियार हासिल है कि जिसे चाहूं, देहलो के तख्त पर बैठा हूँ और अगर खुदा चाहा तो एक दिन ऐसा भी आवैगा कि जब तुम मेरी इस ताकत का अंदाजा बखूबी कर सकोगे।"
यह एक ऐसी बात थी, जिसने याकूब जैसे बहादुर शख़्स के कलेजे को भी हिला दिया और उसने हाथ जोड़ कर कहा,-
"बेगम साहिबा ! मुआफ़ कीजिएगा; बंदे की राय हुजूर की राय के साथ इत्तिफ़ाक नहीं कर सकती क्योंकि ये सब आसार 'अच्छे नहीं हैं; इनसे सल्तनत को बड़ा भारी नुकसान पहुंचता है और रियाया या दर्बार के अमीर उमरा का दिल अपने वादशाह से बिल्कुल फिर जाता है।
रज़ीया,-"अजी, हज़रत ! तुम्हारा किधर ख़याल है?"
याकूब,-'अफ़सोस का मुकाम है कि आपने, इतनी बड़ी आलिम और आकिल हो कर भी मेरी बातों पर मुतलक गौर न किया।
रज़ीया,-"तुम्हारी बेसिर पैर को बातों पर मुझे गौर करने या सिर खपाने की कोई जरूरत नहीं है। बस, तुमको फ़क़त इतना ही 'हुक्म दिया जाता है कि तुमको दर्बार ले 'अमीर-उल्-उमरा' के खिताब और खिल्लत के साथ 'दस हज़ारी मनसबदारी' का पर्वाना दिया जायगा और जागीर में दो लाख रुपए साल का लाखिराजा इलाका बख़शा जायगा । बस, फिर तुम्हारा यही काम होगा कि तुम 'दारोगा अस्तबल' के काम से रिहाई पाकर 'मुवारक-महल' नामी आलीशान इमारत में, जो कि शाही बाग़ के उस सिरे पर बनी हुई है, बड़ी शान शौकत के साथ रहा करोगे और बराबर दर्बार में हाज़िर रह कर, जब मैं घोड़े पर सवार होकर हवाखोरी के लिये महल से निकलूंगी तो तुम मुझे मेरे घोड़े पर हाथ का सहारा देकर सवार करा दिया करोगे और अपने घोड़े पर सवार होकर बराबर मेरे साथ रहोगे।"