तेरहवां परिच्छेद.
इश्क नहीं,हुकूमत।
"जो तुमने की नहीं, तो फिर नहीं मैं तुमको छोडूंगा।
तुम्हारी जान लूंगा, और अपनी जान देदूंगा।"
(सौदा)
पाठकों को समझना चाहिए कि जब ज़ोहरा ने सुरंग का पत्थर हटा कर उस कमरे में आने के लिये राह पैदा की थी, उस समय याकूब ने बेगम पर नज़र पड़ते ही 'चट अपने हाथ की बत्ती बुझाकर उसे अपने ज़ब में रक्खा था और सरसरी नज़र से एक बार बेगम और उसकी खाबगाह के कुछ हिस्से को, जो उस समय उसकी आंखों के सामने थे, देख लिया था। फिर जब वह कमरे में आया तो उसने नीची आंखें किए हुए ही बेगम को सलाम किया; किन्तु जब उसने बेगम की वे बातें सुनीं, जो ऊपर लिखो जा चुकी हैं, तो वह कुछ चिहुंका, पर अपना जो ठिकाने कर वह जहां का तहां खड़ा रह गया। उसकी यह हालत देख कर बेगम ने फिर कहा,--
"अय, वाह ! मियां, याकूब ! मैं क्या कह गई, इसे तुमने सुना या नहीं ! खुदा के वास्ते इतना हिजाब न करो और आओ, नज़दीक आओ । खुदा जानता है कि आज मैं तुमको पाकर किस कदर खुश हुई हूँ, इसे बयान नहीं कर सकती।"
बेगम की बातों से यहादुर याकूब बहुत चिहुंका और उसने वहीं पर खड़े खड़े, जहां पर कि वह जिस तरह से खड़ा था,कहा,-- "अय, सुलताना ! इस गुलाम को आपने आधी रात के वक्त इस तनहाई के आलम में, अपनी ख़ाबगाह में किस गरज से तलब किया है?"
रज़ीया,-" उसका हाल, मियां याकूब ! तुमको अभी मालूम होगा; इसलिये आओ, मेरे नज़दीक आकर बैठो।"