की तरफ़ ले जानेवाला वह राजा, शङ्कर के जटाजूट से छटी हुई गङ्गा को ले जाने वाले भगीरथ के समान, मालूम होने लगा। वन के भीतर प्रविष्ट हुआ हाथी जिस तरह कुछ वृक्षों के फल ज़मीन पर गिराता, कुछ को जड़ से उखाड़ता और कुछ को तोड़ता ताड़ता आगे बढ़ता चला जाता है उसी तरह राजा रधु भी कुछ राजाओं से दण्ड लेता, कुछ को पदच्युत करता और कुछ को युद्ध में हराता—अपना मार्ग निष्कण्टक करता हुआ बराबर आगे चला गया।
इस प्रकार, पूर्व के कितने ही देशों को दबाता हुआ वह विजयी राजा, ताड़-वृक्षों के वनों की अधिकता के कारण श्यामल देख पड़नेवाले महासागर के तट तक जा पहुँचा। वहाँ सुह्म देश (पश्चिमी बङ्गाल) के राजा ने, वेतस-वृत्ति धारण करके, सारे उद्धत राजाओं को उखाड़ फेंकनेवाले रघु से अपनी जान बचाई। बेत के वृक्ष जिस तरह नम्र होकर—झुक कर—नदी के वेग से अपनी रक्षा करते हैं उसी तरह सुह्म-नरेश ने भी नम्रता दिखा कर—अधीनता स्वीकार करके रघु से अपनी रक्षा की। सुह्मदेश वालों के इस उदाहरण से बङ्ग-देश के राजाओं ने लाभ न उठाया। उन्हें इस बात का गर्व था कि हमारे पास जल-सेना बहुत है। लड़ाकू जहाजों और बड़ी बड़ी नावों पर सवार होकर जिस समय हम लोग लड़ेंगे उस समय रघु की कुछ न चलेगी। जलयुद्ध में हम लोग रघु की अपेक्षा अधिक प्रवीण हैं। परन्तु यह उनकी भूल थी। रघु बड़ाही प्रवीण सेनानायक था। उसने उन सबको परास्त करके बलपूर्वक उखाड़ फेंका और गङ्गा-प्रवाह के भीतर टापुओं में कितने ही विजय-स्तम्भ गाड़ दिये। परास्त किये जाने पर वे वनदेशीय नरेश होश में आये और रघु के पैरों पर जाकर गिरे। शरण आने पर रघु ने उनका राज्य उन्हें लौटा दिया—उन्हें फिर राज्यारूढ़ कर दिया। उस समय वे नरेश जड़ तक झुके हुए धान के उन पौधों की उपमा को पहुँचे जो उखाड़ कर फिर लगा दिये जाते हैं। जैसे इस तरह लगाये हुए पौधे और भी अधिक फल देते हैं—और भी अधिक धान उत्पन्न करते हैं—उसी तरह उन वङ्ग-नरेशों ने भी, राज्यचुत होकर राज्यारूढ़ होने पर, रघु को और भी अधिक धन-धान्य देकर उसे प्रसन्न किया।
इसके अनन्तर राजा रघु ने कपिशा रूपनारायण) नदी पर हाथियों का पुल बाँध कर सेनासहित उसे पार किया। उत्कलदेश (उड़ीसा) में उसके पहुँचते ही वहाँ के शासक राजाओं ने उसकी शरण ली। अतएव उनसे युद्ध करने की आवश्यकता न पड़ी। कलिङ्गदेश की सीमा उत्कल से मिली ही हुई थी। इस कारण उत्कलवाले वहाँ का मार्ग अच्छी तरह