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रघुवंश।

अपनी दक्षिणगामिनी लपट से ग्रहण किया। इस बहाने अग्नि ने अपना दाहना हाथ उठा कर रघु से मानो यह कहा कि इस यात्रा में तेरी अवश्यही जीत होगी। इस अनुष्ठान का आरम्भ होने के पहले ही राजा रघु अपनी राजधानी और राज्य की सीमा वाले अपने क़िलों आदि की रक्षा का प्रबन्ध कर चुका था। उसके पृष्ठभागवाले सारे शत्रुओं का संहार भी, तब तक, उसकी सेना कर चुकी थी। इस प्रकार सर्वसिद्धता हो चुकने पर, छः प्रकार की सेना साथ लेकर, दिग्विजय के लिए उस भाग्यशाली ने नगर से प्रस्थान किया। मन्थन करते समय, क्षीर-सागर की लहरों ने, जिस तरह, विष्णु भगवान् पर, मन्दराचल-पर्वत के घूमने से ऊपर को उड़े हुए अपने कण बरसाये थे, उसी तरह, बूढ़ी बूढ़ी पुर-वासिनी स्त्रियों ने, प्रस्थान के समय, रघु पर खोलें बरसाईं।

राजा रघु के रथों के पहियों से ऊपर को उड़ी हुई धूल ने आकाश को बिलकुलही आच्छादित कर लिया। इससे वह पृथ्वी सा मालूम होने लगा। और, उसके काले काले हाथियों के ताँतातोर ने, पृथ्वी पर, मेघों की घटा को मान कर दिया। इससे वह आकाश के सदृश मालूम होने लगी। आकाश तो पृथ्वी सा हो गया और पृथ्वी आकाश सी!

इन्द्र-तुल्य पराक्रमी रघु, दिग्विजय के लिए, पहले पूर्व दिशा की ओर चला। उस समय, मार्ग में, हवा से उसके रथों की ध्वजाओं को फहराते देख यह जान पड़ने लगा कि वह उन पताकाओं को इस तरह हिला हिला कर अपने शत्रुओं को भयभीत सा कर रहा है। उसके प्रयाण करने पर सब के आगे तो लोगों को उसका प्रताप उसका यश—विदित हुआ; उसके पीछे उसकी सेना का तुमुल नाद सुनाई पड़ा, उसके अनन्तर आकाश में छाई हुई धूल देख पड़ी, और सब के पीछे रथ, हाथी, घोड़े, पैदल आदि दिखाई दिये। इससे यह भासित होने लगा कि वह सेना चार भागों में बँटी हुई, अर्थात् चतुरङ्गिनी, सी है। रघु की प्रचण्ड सेना ने निर्जल मरुस्थलों को सजल कर दिया—मार्ग में यदि उसे कोई ऐसा प्रदेश मिला जहाँ पानी की कमी थी तो उसने तत्काल ही कुवे आदि खुदा कर उसे जलमय कर डाला। बिना नाव के और किसी तरह पार न की जाने योग्य बड़ी बड़ी नदियों पर उसने पुल बँधवा कर पैरों से ही चल कर पार की जाने योग्य कर दिया। मार्ग में भयङ्कर वनों के आ जाने पर उन्हें कटा कर उसने मैदान कर दिया। बात यह कि उसके पास इतनी सेना थी और वह इतना शक्तिसम्पन्न था कि कोई प्रदेश और कोई स्थान ऐसा न था जो उसके लिए अगम्य होता। अपनी अनन्त सेना को पूर्वी समुद्र