जगह ही न थी जहाँ उसका यश न फैला हो। संसार की संरक्षा करने वाले रघु ने, अपने गुणों ही की बदौलत, लड़कपन से जितने बड़े बड़े काम किये थे उन सब का स्मरण करके, ईख के खेतों की मेड़ पर छाया में बैठी हुई धान रखाने वाली स्त्रियों तक ने उसका यश गाया।
परन्तु, संसार में सब लोग एक से नहीं होते। कुछ ऐसे भी होते हैं जिनसे दूसरों का वैभव नहीं देखा जाता। उस समय कुछ राजाओं का स्वभाव इसी तरह का था। रघु का बढ़ता हुआ प्रताप और पराक्रम उन्हें असह्य था। उन्होंने सोचा कि अब हमारा पराभव हुए बिना न रहेगा। अतएव वे रघु से द्वेष रखने लगे। ऋतु उस समय शरद् थी। इस कारण उधर आकाश में महा-प्रतापी अगस्त्य ऋषि का उदय होने से पृथ्वी का जल-समुदाय तो निर्मल हो गया, पर, इधर इन ईर्षालु राजाओं का मन रघु के प्रतापोदय से क्षुब्ध होकर गँदला हो उठा।
उस समय ऊँची ऊँची लाठ वाले मदोन्मत्त बैलों को अपने सींगों से नदियों के तट खोदते देख, यह जान पड़ता था कि बड़े बड़े पराक्रम के कामों को भी खेल सा समझ कर उन्हें कर दिखाने वाले रघु की वे हाड़ सी कर रहे हैं।
सप्तपर्ण नाम के वृक्षों के फूलों से वैसी ही सुगन्धि आती है जैसी कि हाथी की कनपटी से बहने वाले मद से आती है। अतएव, राजा रघु के हाथी जिस समय इन वृक्षों के नीचे से निकलते थे और इनके फूल उनके ऊपर गिरते थे उस समय वे क्षुब्ध हो उठते थे। उन्हें ईर्षा सी होती थी। वे मनही मन यह सोचने से लगते थे कि ऐसी सुगन्धि वाला हमारे सिवा और कौन है? मानो, इसी से वे अपने केवल मस्तकही से नहीं, किन्तु सातों अङ्गों से मद की धारा बहाने लगते थे।
अभी तक रघु ने विजय-यात्रा के लिए प्रस्थान करने का विचारही न किया था—उसके मन में अभी तक इस विषय की उत्साह-शक्तिही न उत्पन्न हुई थी। इतने में नदियों को उतरने योग्य बना कर और मार्ग को सुखा कर, उसके मन में इस बात के आने के पहले ही, शरद् ऋतु ने उसे यात्रा के लिए, प्रेरित सा कर दिया। उसने सूचना सी दी कि अब यात्रा करने का समय आ गया।
सब तरह की अनुकूलता जान कर रघु, प्रस्थान करने के लिए, उद्यत हो गया। वाजि-नीराजना नामक घोड़ा पूजने की विधि उसने आरम्भ कर दी। बड़ा भारी हवन हुआ। उसकी आहुतियों को अग्नि देवता ने