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रघुवंश।

की बारीकियों तक का उसे पूरा पूरा ज्ञान था। अतएव सब कामों की सूक्ष्म से भी सूक्ष्म विधि का ज्ञान कराने वाले शास्त्र ही को वह अपने नेत्र समझता था। कारण यह कि विचारशील पुरुष शास्त्र ही को मुख्य दृष्टि समझते हैं; नेत्रों की दृष्टि को तो वे गौण समझते हैं।

पिता से प्राप्त हुए राज्य का पूरा पूरा प्रबन्ध करके और सर्वत्र अपना दबदबा अच्छी तरह जमा करके ज्योंही राजा रघु निश्चिन्त हुआ त्योंही, कमल के फूलों से शोभायमान शरद् ऋतु, दूसरी लक्ष्मी के समान, आ पहुँची। शरत्काल आने पर, ख़ूब बरस चुकने के कारण हलके हो होकर, मेघों ने, आकाश-पथ परित्याग कर दिया। अतएव, रुकावट न रहने से—रास्ता साफ़ हो जाने से दुःसह हुए सूर्य्य के ताप और रघु के प्रताप ने, एकही साथ, सारी दिशाओं को व्याप्त कर लिया। वर्षा बीत जाने पर जिस तरह सूर्य्य का तेज पहले से भी अधिक तीव्र हो जाता है उसी तरह राजा रघु का प्रताप भी पहले की अपेक्षा अधिक प्रखर होकर और भी दूर दूर तक फैल गया। उधर इन्द्रदेव ने पृथ्वी पर पानी बरसाने के लिए धारण किये गये धनुष की प्रत्यञ्चा खोल डाली—काम हो गया जान उसे उसने रख दिया, इधर रघु ने अपना विजयी धनुष हाथ में उठाया। इस प्रकार, संसार का हित करने के इरादे से ये दोनों, बारी बारी से, धनुषधारी हुए। जब इन्द्र के धनुष की ज़रूरत थी तब उसने धारण किया था। अब रघु के धनुष की ज़रूरत हुई; इससे उसने भी उसे उठा लिया।

इस अवसर पर शरत्काल को एक दिल्लगी सूझी। कमलरूपी छत्र और फूलों से लदे हुए काशरूपी चमर धारण करके वह रघु की बराबरी करने चला। परन्तु बेचारे को निराश होना पड़ा। रघु की शोभा को वह न पा सका। यह देख कर चन्द्रमा से न रहा गया। वह भी राजा रघु की होड़ करने दौड़ा। उसका प्रयत्न अवश्य सफल हुआ। उस स्वच्छ प्रभा वाले शरत्कालीन चन्द्रमा को लोगों ने रघु के प्रसन्न और हँसते हुए मुख की बराबरी का समझा। अतएव जितने नेत्रधारी थे सब ने उन दोनों को समदृष्टि से देखा—उनकी जितनी प्रीति का पात्र चन्द्रमा हुआ उतनीहीं प्रीति का पात्र रघु भी हुआ।

उस समय राजहंसों, तारों, और खिले हुए श्वेत कमलों से परिपूर्ण जलाशयों को देख कर यह शङ्का होने लगी कि राजा रघु के शुभ्र यश की विभूति की बदौलतही तो कहीं ये शुभ्र नहीं हो रहे! उसी के यश की धवलता ने तो इन्हें धवल नहीं कर दिया! कारण यह कि ऐसी कोई