राजा दिलीप पण्डित था। शब्दों का अर्थ वह अच्छी तरह जानता था। इस कारण उसने अपने पुत्र का कोई सार्थक नाम रखना चाहा। उसने कहा यह बालक सारे शास्त्रों का तत्त्व समझ कर उनके, तथा शत्रुओं के साथ युद्ध छिड़ जाने पर उन्हें परास्त करके समर-भूमि के, पार पहुँच सके तो बड़ी अच्छी बात हो। यही सोच कर और 'रघि' धातु का अर्थ गमनार्थक जान कर उसने अपने पुत्र का नाम 'रघु' रक्खा।
दिलीप को किसी बात की कमी न थी। वह बड़ाही ऐश्वर्य्यवान् राजा था। सारी सम्पदायें उसके सामने हाथ जोड़े खड़ी थीं। उन सबका उपयोग करके बड़े प्रयत्न से उसने पुत्र का लालन-पालन आरम्भ किया। फल यह हुआ कि बालक के सुन्दर शरीर के सारे अवयव शीघ्रता के साथ पुष्ट होने लगे।
सूर्य्य की किरणों का प्रतिपदा से प्रवेश आरम्भ होने से जिस तरह बाल-चन्द्रमा का बिम्ब प्रति दिन बढ़ता जाता है उसी तरह वह बालक भी बढ़ने लगा। कार्त्तिकेय को पाकर जैसे शङ्कर और पार्व्वती को, तथा जयन्त को पाकर जैसे इन्द्र और इन्द्राणी को, हर्ष हुआ था वैसे ही शङ्कर और पार्वती तथा इन्द्र और इन्द्राणी की समता करनेवाले दिलीप और सुदक्षिणा को भी, कार्त्तिकेय और जयन्त की बराबरी करनेवाला पुत्र पाकर, हर्ष हुआ। चक्रवाक और चक्रवाकी में परस्पर अपार प्रेम होता है। उनमें एक दूसरे का प्रेम एक दूसरे के हृदय को बाँधे सा रहता है। सुदक्षिणा और दिलीप के प्रेम का भी यही हाल था। चक्रवाक पक्षी के जोड़े के प्रेम की तरह इन दोनों के प्रेम ने भी एक दूसरे के हृदय को बाँध कर एक सा कर दिया था। यह प्रेम इस समय उनके इकलौते बेटे के ऊपर यद्यपि बँट गया, तथापि वह कम न हुआ। वह और भी बढ़ता ही गया—पुत्र पर चले जाने पर भी उन दोनों का पारस्परिक प्रेम क्षीण न हुआ, उलटा अधिक हो गया।
धाय के सिखलाने से धीरे धीरे रघु बोलने लगा। उसकी उँगली पकड़ कर वह चलने भी लगा। और, उसकी शिक्षा से वह नमस्कार भी करने लगा। इन बातों से उसके पिता दिलीप के आनन्द का ठिकाना न रहा। उसके तातले वचन सुन कर तथा उसको चलते और प्रणाम करते देख कर पिता को जो सुख हुआ उसका वर्णन नहीं हो सकता। जिस समय दिलीप रघु को गोद में उठा लेता था उस समय पुत्र का अङ्ग छू जाने से राजा की त्वचा पर अमृत की सी वृष्टि होने लगती थी। अतएव, आनन्द की अधिकता के कारण उसके नेत्र बन्द हो जाते थे। पुत्र के स्पर्श रस का यह अलौकिक स्वाद, बहुत दिनों के बाद, उसने पाया था।