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दूसरा सर्ग।

उसे, सज्जनों का प्यार करनेवाले अनिन्दितात्मा दिलीप ने, वशिष्ठ की आज्ञा से, मूर्त्तिमान् उज्ज्वल यश की तरह, उत्कण्ठापूर्वक, पिया।

राजा का गोसेवारूप व्रत अच्छी तरह पूर्ण होने पर, प्रातःकाल, उसकी यथाविधि पारण हुई। विधिपूर्व्वक व्रत खोला गया। इसके उपरान्त प्रस्थान-सम्बन्धी समुचित आशीर्वाद देकर जितेन्द्रिय वशिष्ठ ने, अपनी राजधानी को लौट जाने के लिए, दिलीप और सुदक्षिणा को आज्ञा दी। तब, आहुतियाँ दी जाने से तृप्त हुए यज्ञसम्बन्धी अग्निनारायण की, महर्षि वशिष्ठ के अनन्तर उनकी धर्मपत्नी अरुन्धती की, और बछड़े सहित नन्दिनी की प्रदक्षिणा करके, उत्तमोत्तम मङ्गलाचारों से बढ़े हुए प्रभाववाले राजा ने अपने नगर की ओर प्रस्थान करने की तैयारी की। नन्दिनी की सेवा करते समय अनेक दुःख और कष्ट सहन करनेवाले राजा ने, अपनी धर्मपत्नी के साथ, रथ पर आरोहण किया। उसका रथ बहुत ही अच्छा था। चलते समय उसके पहियों की ध्वनि कानों को बड़ी ही मनोहर मालूम होती थी। बुरे मार्ग में भी वह बिना रुकावट के चल सकता था। अतएव, पूर्ण हुए मनोरथ के समान उस सुखदायक रथ पर मार्ग—क्रमण करता हुआ राजा अपने नगर के निकट आ पहुँचा।

सन्तान की प्राप्ति के निमित्त व्रताचरण करने से राजा दिलीप बहुत ही दुबला हो रहा था। नगर से दूर आश्रम में रहने के कारण प्रजाजनों ने उसे बहुत दिनों से देखा भी न था। उसका पुनर्दर्शन करने के लिए वे बहुत उत्कण्ठित हो रहे थे। अतएव, राजधानी में पहुँचने पर, शुक्लपक्ष की प्रतिपदा के चन्द्रमा के समान उस कृशाङ्गराजा का उसकी प्रजा ने अतृप्त नेत्रों से पी सा लिया। उत्सुकता के कारण घंटों उसकी तरफ़ देखते रहने पर भी लोगों को तृप्ति न हुई।

राजा के लौटने के समाचार पा कर पुरवासियों ने पहले ही से नगर को ध्वजा-पताका आदि से सजा रक्खा था। इन्द्र के समान ऐश्वर्य्यशाली दिलीप ने, उस सजी हुई अपनी राजधानी में, नगरनिवासियों के मुँह से अपनी स्तुति सुनते सुनते प्रवेश किया और भूमि के भार को शेष के समान बलवान् अपनी भुजाओं पर फिर धारण कर लिया। फिर वह पहले की तरह अपना राज-काज करने लगा।

इधर राजा की सन्तान-सम्बन्धिनी कामना ने भी फलवती होने का उपक्रम किया। अत्रिमुनि की आँखों से निकले हुए चन्द्रमा को जिस तरह