नन्दिनी को इस प्रकार प्रसन्न देख, याचकजनों का आदरातिथ्य करके उनके मनोरथ सफल करने वाले और अपने ही बाहु-बल से अपने लिप 'वीर' संज्ञा पानेवाले राजा दिलीप ने, दोनों हाथ जोड़ कर, यह वर माँगा कि सुदक्षिणा की कोख से मेरे एक ऐसा पुत्र हो जिससे मेरा वंश चले और जिसकी कीर्ति का किसी को अन्त न मिले।
पुत्र-प्राप्ति की इच्छा रखनेवाले राजा की ऐसी प्रार्थना सुन कर उस दुग्धदात्री कामधेनु ने 'तथास्तु' कह कर उसे अभिलषित वर दिया। उसने आज्ञा दी—"बेटा! पत्तों के दोने में दुह कर मेरा दूध तू पी ले। अवश्य ही वैसा पुत्र तेरे होगा"।
राजा ने कहा:—'हे माता! बछड़े के पी चुकने और यज्ञ-क्रिया हो जाने पर तेरा जो दूध बच रहेगा उसे, पृथ्वी की रक्षा करने के कारण राजा जैसे उसकी उपज का छठा अंश ले लेता है वैसे ही, मैं भी, ऋषि की आज्ञा से, ग्रहण कर लूँगा—पीलूँगा। तेरे दूध से पहले तो तेरे बछड़े की तृप्ति होनी चाहिए, फिर महर्षि के अग्निहोत्र आदि धार्म्मिक कार्य्य। तदनन्तर जो कुछ बच रहेगा उसी के पाने का मैं अधिकारी हो सकता हूँ, अधिक का नहीं। इसके सिवा इस विषय में तेरे पालक और अपने गुरु ऋषि की आज्ञा लेना भी मैं अपना कर्त्तव्य समझता हूँ। इस निवेदन का यही कारण है"।
महर्षि वशिष्ठ की वह धेनु, राजा की सेवा-शुश्रूपा से पहले ही सन्तुष्ट हो चुकी थी। जब उसने दिलीप के मुँह से ऐसे विनीत और औदार्यपूर्ण वचन सुने तब तो वह उस पर और भी अधिक प्रसन्न हो गई और राजा के साथ हिमालय की उस गुफा से, बिना ज़रा भी थकावट के, मुनि के आश्रम को लौट आई। उस समय माण्डलीक राजाओं के स्वामी दिलीप के चेहरे से प्रसन्नता टपक सी रही थी। उसके मुख की सुन्दरता पौर्णमासी के चन्द्रमा को भी मात कर रही थी। उसकी मुखचर्य्या से यह स्पष्ट सूचित हो रहा था कि नन्दिनी ने उसका मनोरथ पूर्ण कर दिया है। उसे देखते ही उसके हर्ष-चिह्नों से महर्षि वशिष्ठ उसकी प्रसन्नता का कारण ताड़ गये। तथापि राजा ने अपनी वर-प्राप्ति का समाचार गुरु से निवेदन करके उसकी पुनरुक्ति सी की। तदनन्तर वही बात उसने सुदक्षिणा को भी जाकर सुनाई।
यथासमय नन्दिनी दुही गई। बछड़े से जितना दूध पिया गया उसने पिया। जितना आवश्यक था उतना हवन में भी ख़र्च हुआ। जो बच रहा