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रघुवंश।


"क्षत्र—शब्द का अर्थ बहुत ही प्रोढ़ है। 'क्षत' अर्थात् नाश, अथवा आयुध आदि से किये जानेवाले घाव, से जो रक्षा करता है वही सच्चा क्षत्र अथवा क्षत्रिय है। यह नहीं कि इस शब्द का अकेले मैं ही ऐसा अर्थ करता हूँ। नहीं, त्रिभुवन में इसका यही अर्थ विख्यात है। सभी इस अर्थ को मानते हैं। अतएव, इस अर्थ के अनुकूल व्यवहार करना ही मेरा परम धर्म है। नाश पानेवाली चीज़ की रक्षा करने के लिए मैं सर्वथा बाध्य हूँ। यदि मुझसे अपने धर्म्म का पालन न हुआ तो राज्य ही लेकर मैं क्या करूँगा? और, फिर, निन्दा तथा अपकीर्ति से दूषित हुए प्राण ही मेरे किस काम के? धर्म्मपालन न करके अकीर्ति कमाने की अपेक्षा तो मर जाना ही अच्छा है। नन्दिनी के मारे जाने से अन्य हज़ारों गायें देने पर भी महर्षि वशिष्ठ का क्षोभ कदापि शान्त न हो सकेगा। इसमें और इसकी माता सुरभि नामक कामधेनु में कुछ भी अन्तर नहीं। यह भी उसी के सदृश है। यदि तुझ पर शङ्कर की कृपा न होती तो तू कदापि इस पर आक्रमण न कर सकता। तूने यह काम अपने सामर्थ्य से नहीं किया। महादेव के प्रताप से ही यह अघटित घटना हुई है। अतएव, बदले में अपना शरीर देकर इसे तुझसे छुड़ा लेना मेरे लिए सर्वथा न्यायसङ्गत है। मेरी प्रार्थना अनुचित नहीं। उसे स्वीकार करने से तेरी पारणा भी न रुकेगी और महर्षि वशिष्ठ के यज्ञ-याग आदि कार्य्य भी निर्विघ्न होते रहेंगे। इस सम्बन्ध में तू स्वयं ही मेरा उदाहरण है। क्योंकि तू भी इस समय मेरे ही सदृश, पराधीन होकर, बड़े ही यत्न से इस देवदारु की रक्षा करता है। अतएव, तू स्वयं भी इस बात को अच्छी तरह जानता होगा कि जिस वस्तु की रक्षा का भार जिस पर है उसे नष्ट करा कर वह स्वामी के सामने अपना अक्षत शरीर लिये हुए मुँह दिखाने का साहस नहीं कर सकता। पहले वह अपने को नष्ट कर देगा तब अपनी रक्षणीय वस्तु को नष्ट होने देगा। जीते जी वह उसकी अवश्य ही रक्षा करेगा। यही समझ कर तू भी अपने स्वामी के पाले हुए पेड़ की रक्षा के लिए इतना प्रयत्न करता है। इस दशा में तू मेरी प्रार्थना को अनुचित नहीं कह सकता। इस पर भी यदि तू मुझे मारे जाने योग्य न समझता हो तो मेरे मनुष्य शरीर की रक्षा की परवा न करके मेरे यशःशरीर की रक्षा कर। रक्त, मांस और हड्डी के शरीर की अपेक्षा मैं यशोरूपी शरीर को अधिक आदर की चीज़ समझता हूँ। पञ्चभूतात्मक साधारण शरीर तो एक न एक दिन अवश्य ही नष्ट हो जाता है; परन्तु यश चिरकाल तक बना रहता है। इसीसे मैं यश को बहुत कुछ समझता हूँ, शरीर को कुछ नहीं। हम दोनों में अब परस्पर सुहृत्सम्बन्ध सा हो गया है, अपरिचित-भाव अब नहीं रहा। इस कारण भी तुझे मेरी प्रार्थना मान लेनी चाहिए। सम्बन्ध का कारण पारस्परिक