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दूसरा सर्ग।

है! मेरी समझ में तेरा चित्त ठिकाने नहीं। जान पड़ता है, तू बिलकुलही सारा-सार-विचार-शून्य है। जीवधारियों पर तेरी अतिशय दया का होना ही यदि ऐसा अविवेकपूर्ण काम कराने के लिए तुझे प्रेरित कर रहा हो तो तेरे मरने से नन्दिनी अवश्य बच सकती है। परन्तु यदि तू उसके बदले अपने प्राण न देकर जीता रहेगा तो, प्रजा का पालक होने के कारण, पिता के समान, तू अपने अनन्त प्रजा-जनों की उपद्रवों से चिरकाल तक रक्षा कर सकेगा। अतएव अपने प्राण खोकर केवल नन्दिनी को बचाने की अपेक्षा, जीता रह कर, तुझे सारे संसार का पालन करना ही उचित है। तू शायद यह कहे कि गाय के मारे जाने से तेरा गुरु वशिष्ठ तुझ पर क्रोध करेगा। उससे बचने का क्या उपाय है? अच्छा जो तू ऋषि से इतना डरता है। तो मैं इसकी भी युक्ति तुझे बतलाता हूँ। सुन। यदि वह इसकी मृत्यु का अत्यधिक अपराधी तुझे ही ठहरावे और आग-बबूला होकर तुझ पर कोप करे तो तू इस एक गाय के बदले घड़े के समान ऐन वाली करोड़ों गायें देकर उसके कोप को शान्त कर सकता है। ऐसा करना तेरे लिए कोई बड़ी बात नहीं। अतएव, इस ज़रा सी बात के कारण तू अपने तेजस्वी और शक्ति-सम्पन्न शरीर का नाश न कर। इस शरीरही की बदौलत मनुष्य को सारे सुखों की प्राप्ति होती है। जो वही नहीं तो कुछ भी नहीं। तुझे इस बात की भी चिन्ता न करनी चाहिए कि नन्दिनी की मृत्यु के कारण तू स्वर्ग-सुख से वञ्चित हो जायगा। सम्पूर्ण समृद्धियों से परिपूर्ण तेरा विस्तृत राज्य स्वर्ग से कुछ कम नहीं। वह सर्वथा इन्द्रपद के तुल्य है। भेद यदि कुछ है तो इतना ही है कि तेरा राज्य पृथ्वी पर है और इन्द्र का स्वर्ग में है। बस, इस कारण, अपने शरीर को व्यर्थ नष्ट न करके आनन्दपूर्वक अपने राज्य का सुखोपभोग कर।

इतना कह कर सिंह चुप होगया। उस समय उस गिरि-गुहा के भीतर सिंह के मुँह से निकले हुए वचनों की बड़ी भारी प्रतिध्वनि हुई। मानों उस प्रतिध्वनि के बहाने हिमालय पर्वत ने भी ऊँचे स्वर से, प्रीतिपूर्वक, राजा से वही बात कही। अर्थात् हिमालय ने भी उस कथन को प्रतिध्वनि-द्वारा दुहरा कर यह सूचित किया कि मेरी भी यही राय है।

अब तक वह सिंह बेचारी नन्दिनी को दबाये हुए बैठा था। उसके पञ्जों में फँसी हुई वह बेतरह भयभीत होकर बड़ी ही कातर-दृष्टि से राजा को देख रही थी और अपनी रक्षा के लिए मन ही मन मूक प्रार्थना कर रही थी। राजा को उसकी उस दशा पर बड़ी ही दया आई। अतएव उसने सिंह से फिर इस प्रकार कहाः—