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रघुवंश।


राजा दिलीप कुछ ऐसा वैसा न था। महात्मा भी उसका मान करते थे। वैवस्वत मनु के वंश का वह शिरोमणि था। उस समय के सारे राजाओं में वह सिंह के समान बलवान् था। इस कारण अपना हाथ रुक जाते देख उसे बड़ा आश्चर्य्य हुआ। राजा को इस तरह आश्चर्य्य-चकित देख कर, नन्दिनी पर आक्रमण करने वाले सिंह ने, मनुष्य की वाणी में, नीचे लिखे अनुसार बातें कह कर, उसके आश्चर्य्य को और भी अधिक कर दिया। वह बोला:—

"हे राजा! बस हो चुका। और अधिक परिश्रम करने की आवश्यकता नहीं। चाहे जिस शस्त्र का प्रयोग तू मेरे ऊपर कर, वह व्यर्थ हुए बिना न रहेगा। मुझे तू कुछ भी पीड़ा नहीं पहुँचा सकता। वायु का वेग ऊँचे ऊँचे पेड़ों को चाहे भले ही उखाड़ फेंके; परन्तु पहाड़ों पर उसका कुछ भी ज़ोर नहीं चल सकता। तुझे नहीं मालूम कि मैं कौन हूँ। इसी से शायद तू यह कहे कि मुझ में इतना सामर्थ्य कहाँ से आया। अच्छा, सुन। मैं निकुम्भ का मित्र हूँ। मेरा नाम कुम्भोदर है। मैं अष्टमूर्ति शङ्कर का सेवक हूँ। कैलास-पर्व्वत के समान शुभ्र-वर्ण नन्दी के ऊपर सवार होते समय, कैलासनाथ पहले मेरी पीठ पर पैर रखते हैं। तब वे अपने वाहन नन्दी पर सवार होते हैं। इस कारण उनके चरण-स्पर्श से मेरी पीठ अत्यन्त पवित्र हो गई है। सिंह का रूप धारण करके मैं यहाँ पर क्यों रहता हूँ, इसका भी कारण मैं तुझे बतला देना चाहता हूँ।

"यह जो सामने देवदारू का वृक्ष देख पड़ता है उसे वृषभध्वज शङ्कर ने अपना पुत्र मान रक्खा है। पार्वती ने अपने घट-स्तनों का दूध पिला कर जिस तरह अपने पुत्र स्कन्द का पालन-पोषण किया है उसी तरह उन्होंने अपने सुवर्ण-कलश-रूपी स्तनों के पयःप्रवाह से सींच कर इसे भी इतना बड़ा किया है। उनका इस पर भी उतना ही प्रेम है जितना कि स्कन्द पर है। एक दिन की बात है कि एक जङ्गली हाथी का मस्तक खुजलाने लगा। उस समय वह इसी वृक्ष के पास फिर रहा था। इस कारण उसने अपने मस्तक को इसके तने पर रगड़ कर खुजली शान्त की। उसके इस तरह बलपूर्वक रगड़ने से इसकी छाल निकल गई। इस पर पार्वती को बड़ा शोक हुआ। युद्ध में दैत्यों के शस्त्र प्रहार से स्कन्द के शरीर का चमड़ा छिल जाने पर उन्हें जितना दुःख होता उतनाही दुःख उन्हें इस वृक्ष की छाल निकल गई देख कर हुआ। तब से महादेवजी ने मुझे सिंह का रूप देकर, हिमालय की इस गुफ़ा में, वन-गजों को डराने के लिए रख दिया है और आज्ञा दे दी है कि दैवयोग से जो प्राणी यहाँ