किया—उसे ख़ूब टकटकी लगाकर उन्होंने देखा। वृक्षों, लताओं और मृग-महिलाओं तक को राजा के शुभागमन के कारण आनन्द मनाते और उसका समुचित पूजोपचार करते देख वन-देवताओं से भी न रहा गया। छेदों में वायु भर जाने के कारण बाँसुरी के समान शब्द करने वाले बाँसों से उन्होंने बड़े ऊँचे स्वर से दिलीप को सुना सुना कर लतागृहों के भीतर उसका यशोगान किया। अब पवन की बारी आई। उसने देखा कि व्रतस्थ होने के कारण राजा छत्ररहित है और तेज धूप उसे सता रही है। अतएव पर्वतों पर बहने वाले झरनों के कणेां के स्पर्श से शीतल और वृक्षों के हिलते हुए फूलों के सुवास से सुगन्धित होकर उसने भी उस सदाचार-शुद्ध राजा की सेवा की।
उस धेनु-रक्षक राजा का वन में प्रवेश होने पर, बिना वृष्टि के ही सारी दावाग्नि बुझ गई; फलों और फूलों की बेहद वृद्धि हुई, यहाँ तक कि प्रबल प्राणियों ने निर्बलों को सताना तक छोड़ दिया।
अपने भ्रमण से सारी दिशाओं को पवित्र करके, नये निकले हुए कोमल पत्तों के समान लाल रङ्ग वाली सूर्य की प्रभा और वशिष्ठ मुनि की धेनु, दोनों ही, सायङ्काल घर जाने के लिए लौटीं—सूर्य्यास्त के समय नन्दिनी ने आश्रम की ओर प्रस्थान किया।
देवताओं के लिए किये जानेवाले यज्ञ, पितरों के लिए किये जाने वाले श्राद्ध और अतिथियों के लिए दिये जाने वाले दान के समय काम आने वाली उस सुरभि-सुता के पीछे पीछे पृथ्वी का पति दिलीप भी आश्रम को चला। अपने शुद्ध आचरण के कारण श्रेष्ठजनों के द्वारा सम्मान पाये हुए उस राजा के साथ जाती हुई नन्दिनी ने, उस समय, ऐसी शोभा पाई जैसी कि धर्म्म-कार्य्य करते समय शास्त्र-सम्मत विधि के साथ श्रद्धा, अर्थात् आस्तिक्य-बुद्धि, शोभा पाती है। उस समय, सायङ्काल, वन का दृश्य बहुत ही जी लुभानेवाला था। शूकरों के यूथ के यूथ छोटे छोटे जलाशयों से निकल रहे थे, मोर पक्षी अपने अपने बसेरे के वृक्षों की तरफ़ उड़ते हुए जा रहे थे, कोमल घास उगी हुई भूमि पर जहाँ तहाँ हिरन बैठे हुए थे। ऐसे मनोहर दृश्योंवाले श्यामवर्ण वन की शोभा देखता हुआ राजा, वशिष्ठ के आश्रम के पास पहुँच गया। नन्दिनी पहले ही पहल ब्याई थी। उसका ऐन बहुत बड़ा था। उसका बोझ सँभालने में उसे बहुत प्रयास पड़ता था। उधर राजा का शरीर भी भारी था। उसकी भी गुरुता कम न थी। अतएव अपने अपने शरीर के भारीपन के कारण दोनों को धीरे धीरे