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रघुवंश।


उस सार्वभौम राजा ने नन्दिनी को वन में बिना किसी रोक टोक के फिरने दिया। उसे अच्छी अच्छी हरी घास खिला कर, उसका बदन ख़ुजला कर और उस पर बैठी हुई मक्खियों तथा मच्छड़ों का निवारण करके उसकी सेवा करने में उसने कोई कसर नहीं की। उसके खड़ी होने पर वह भी खड़ा हो जाता था; उसके बैठ जाने पर धीरतापूर्वक आसन लगा कर वह भी बैठ जाता था; जब वह चलने लगती थी तब वह भी उसी के पीछे पीछे चलने लगता था; जब वह पानी पीने लगती थी तब वह भी पीने लगता था। सारांश यह कि जिस तरह मनुष्य की छाया चलते फिरते सदा ही उसके साथ रहती है, कभी उसे नहीं छोड़ती, उसी तरह दिलीप भी परछाईं के समान नन्दिनी के साथ साथ फिरता रहा। उस दशा में यद्यपि दिलीप के पास छत्र और चामर आदि कोई राज-चिह्न न थे तथापि उसका शरीर इतना तेजापुञ्ज था कि उन चिह्नों से रहित होने पर भी उसे देखने से यही अनुमान होता था कि यह कोई बड़ा प्रतापी राजा है। मद की धारा प्रकट होने के पहले अन्तर्मद से पूर्ण गजराज की जैसी शोभा होती है वैसी ही शोभा, उस समय, दिलीप की थी अपने केशों को लताओं से मज़बूती के साथ बाँध कर और धन्वा पर प्रत्यञ्चा चढ़ा कर उस गाय के पीछे पीछे उसने घने वन में प्रवेश किया। उसे इस वेश में विचरण करते देख, जान पड़ता था कि यज्ञ के निमित्त पाली हुई नन्दिनी की रक्षा के बहाने वह वन के हिंस्र जीवों का शासन करने के लिए ही वहाँ घूम रहा है।

नौकरों को वह पहले ही छोड़ चुका था। परन्तु, वरुण के समान पराक्रमी होने के कारण, उनके बिना उसे कुछ भी कष्ट नहीं हुआ। वह अकेला ही नन्दिनी की सानन्द सेवा करता रहा। जहाँ जहाँ वह उसके साथ साथ वन में फिरता था वहाँ वहाँ उसके मार्ग के दोनों तरफ़ वाले वृक्ष, उन्मत्त पक्षियों के शब्दों द्वारा, उसका जय-जयकार सा करते थे। वृक्ष ही नहीं, लतायें भी उसके आगमन से प्रसन्न थीं। बाहर से नगर में प्रवेश करते समय पुरवासिनी कन्यायें जिस तरह राजा पर खीलों की वृष्टि करती हैं उसी तरह, उस अग्नि समान तेजस्वी और परम पूजनीय दिलीप को अपने आस पास चारों तरफ़ फिरते देख, नवीन लताओं ने पवन की प्रेरणा से उस पर फूल बरसाये। यद्यपि राजा के हाथ में धनुर्बाण था, तथापि उसकी मुखचर्य्या से यह साफ़ मालूम हो रहा था कि उसका हृदय बड़ा ही दयालु है। इस कारण हरिण-नारियाँ उससे ज़रा भी नहीं डरीं। उन्होंने उसके दयालुतादर्शक शरीर का पास से अवलोकन करके अपने नेत्रों की विशालता को अच्छी तरह सफल