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रघुवंश।

वशिष्ठ मुनि महा तपस्वी थे। उन्हें सब तरह की तपःसिद्धि प्राप्त थी। यदि वे चाहते तो अपनी तपःसिद्धि के प्रभाव से राजा के लिए सब तरह की राजोचित सामग्री प्रस्तुत कर देते। परन्तु वे व्रतादि प्रयोगों के उत्तम ज्ञाता थे। अतएव उन्होंने ऐसा नहीं किया। व्रत-नियम पालन करने के लिए, उन्होंने वनवासियों के योग्य वन में ही उत्पन्न हुई कुश-समिध आदि चीज़ों के दिये जाने का प्रबन्ध किया। और चीजों की उन्होंने आवश्यकता ही नहीं समझी। व्रत-निरत राजा को भी वनवासी ऋषियों ही की तरह रहना उन्होंने उचित समझा। इसी से महामुनि वशिष्ठ ने उसे पत्तों से छाई हुई एक पर्णशाला में जाकर सोने को कहा। मुनि की आज्ञा से राजा ने, अपनी रानी सुदक्षिणा-सहित, उस पर्णकुटीर में, कुशों की शय्या पर, शयन किया। प्रातःकाल मुनिवर के शिष्यों के वेद-घोष को सुन कर राजा ने जाना कि निशावसान होगया। अतएव वह शय्या से उठ बैठा।