जा रहा था। इसी जल्दी के कारण उस पूजनीया सुरभी की प्रदक्षिणा और सत्कार आदि करना तू भूल गया। इस कारण वह तुझ पर बहुत अप्रसन्न हुई। उसने कहा—'तू ने मेरा नमस्कार भी न किया। मेरा इतना अपमान! जा, मैं तुझे शाप देती हूँ कि मेरी सन्तति की सेवा किये बिना तुझे सन्तति की प्राप्ति ही न होगी'। इस शाप को न तू ने ही सुना और न तेरे सारथि ही ने। कारण यह हुआ कि उस समय आकाश गङ्गा के प्रवाह में अपने अपने बन्धनों से खुल कर आये हुए दिग्गज क्रीड़ा कर रहे थे। जल-विहार करते समय वे बड़ा ही गम्भीर नाद करते थे। इसी से कामधेनु का शाप तुझे और तेरे सारथि को न सुन पड़ा। इसमें कोई सन्देह नहीं कि कामधेनु का सत्कार तुझे करना चाहिए था। परन्तु तू ने ऐसा नहीं किया, इसी से पुत्र-प्राप्ति-रूप तेरा मनोरथ अब तक सफल नहीं हुआ। पूजनीयों की पूजा न करने से कल्याण का मार्ग अवश्य ही अवरुद्ध हो जाता है।
"अब, यदि उस कामधेनु की आराधना कर के तू उसे प्रसन्न करना चाहे तो यह बात भी नहीं हो सकती। कारण यह है कि इस समय पाताल में वरुण-देव एक बहुत बड़ा यज्ञ कर रहे हैं। उनके लिए अनेक प्रकार की सामग्रियाँ प्रस्तुत कर देने के निमित्त कामधेनु भी वहीं वास करती है। उसके शीघ्र लौट आने की भी आशा नहीं, क्योंकि वह यज्ञ जल्द समाप्त होने वाला नहीं। तेरा वहाँ जाना भी असम्भव है, क्योंकि पाताल के द्वार पर बड़े बड़े भयङ्कर सर्प, द्वारपाल बन कर, द्वार-रक्षा कर रहे हैं। अतएव वहाँ मनुष्य का प्रवेश नहीं हो सकता। हाँ, एक बात अवश्य हो सकती है। उस कामधेनु की कन्या यहीं है। उसे कामधेनु ही समझ कर शुद्धान्तःकरण से पत्नी-सहित तू उसकी सेवा कर। प्रसन्न होने से वह निश्चय ही तेरी कामना सिद्ध कर देगी"।
यज्ञों के करने वाले महामुनि वशिष्ठ यह कह ही रहे थे कि कामधेनु की नन्दिनी नामक वह अनिन्द्य कन्या भी जङ्गल से चर कर आश्रम को लौटी। यज्ञ और अग्निहोत्र के लिए घी, दूध आदि की आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए वशिष्ठ ने उसे आश्रमही में पाल रक्खा था। उसके अङ्ग-प्रत्यङ्ग बड़े ही कोमल थे। उसका रङ्ग वृक्षों के नवीन पत्तों के समान लाल था। उसके माथे पर सफ़ेद बालों का कुछ कुछ टेढ़ा एक चिह्न था। उस शुभ्र चिह्न को देख कर यह मालूम होता था कि आरक्त सन्ध्या ने नवोदित चन्द्रमा को धारण किया है। उसका ऐन घड़े के समान बड़ा था। उसका दूध अवभृथ-नामक यज्ञ के अन्तिम स्नान से भी अधिक