"मेरी दशा इस समय उत्तर की तरफ़ प्रकाश-पूर्ण और दक्षिणा की तरफ़ अन्धकार-पूर्ण लोकालोक पर्वत के समान हो रही है, क्योंकि अनेक यज्ञ करने के कारण मेरी आत्मा तो पवित्र, अतएव तेजस्क है, परन्तु सन्तति न होने के कारण वह निस्तेज भी है। देवताओं का ऋण चुकाने के कारण तो मैं तेजस्वी हूँ, पर पितरों का ऋण न चुका सकने के कारण तेजोहीन हूँ। आप शायद यह कहेंगे कि तपस्या और दान आदि पुण्य-कार्य जो मैं ने किये हैं उन्हीं से मुझे यथेष्ट सुख की प्राप्ति हो सकती है। सन्तति की इच्छा रखने से क्या लाभ? परन्तु, बात यह है कि तपश्चरण और दानादि के पुण्य से परलोक ही में सुख प्राप्त होता है, पर विशुद्ध सन्तति की प्राप्ति से इस लोक और परलोक, दोनों, में सुख मिलता है। अतएव हे सर्व-समर्थ गुरुवर! मुझे सन्तति-हीन देख कर क्या आपको दुःख नहीं होता? आपने अपने आश्रम में जो वृक्ष लगाये हैं, और अपने ही हाथ से प्रेम-पूर्वक सींच कर जिन्हें आपने बड़ा किया है, उनमें यदि फूल-फल न लगें, तो क्या आपको दुःख न होगा? सच समझिए, मेरी दशा, इस समय, ऐसे ही वृक्षों के सदृश हो रही है। हे भगवन्! जिस हाथी के पैरों को कभी ज़ंजीर का स्पर्श नहीं हुआ वह यदि उसके द्वारा खम्भे से बाँध दिया जाय तो वह खम्भा उसके लिए जैसे अत्यन्त वेदनादायक होता है वैसे ही पितरों के ऋण से मुक्त न होने के कारण उत्पन्न हुआ मेरा दुःख मेरे लिए अत्यन्त असह्य हो रहा है। अतएव, इस पीड़ादायक दुःख से मुझे, जिस तरह हो सके, कृपा कर के आप बचाइए, क्योंकि इक्ष्वाकु के कुल में उत्पन्न हुए पुरुषों के लिए दुर्लभ पदार्थ भी प्राप्त करा देना आप ही के अधीन है"।
राजा की इस प्रार्थना को सुन कर वशिष्ठ ऋषि अपनी आँखें बन्द कर के कुछ देर के लिए ध्यान-मग्न हो गये। उस समय वे ऐसे शोभायमान हुए जैसे कि मत्स्यों का चलना फिरना बन्द हो जाने पर, कुछ देर के लिए शान्त हुआ, सरोवर शोभायमान होता है। इस प्रकार ध्यान-मग्न होते ही उस विशुद्धात्मा महामुनि को राजा के सन्तति न होने का कारण मालूम हो गया। तब उसने राजा से इस प्रकार कहा:—
"हे राजा! तुझे याद होगा, इन्द्र की सहायता करने के लिए एक बार तू स्वर्ग लोक को गया था। वहाँ से जिस समय तू पृथ्वी की तरफ़ लौट रहा था उस समय, राह में, कामधेनु बैठी हुई थी। उसी समय तेरी रानी ने ऋतु-स्नान किया था। अतएव धर्मलोप के डर से उसी का स्मरण करते हुए बड़ी शीघ्रता से तू अपना रथ दौड़ाता हुआ अपने नगर को
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