अपने उपदेशों और आज्ञाओं के प्रभाव से राजा दिलीप ने अपनी प्रजा को पुराने आचार-मार्ग से ज़रा भी भ्रष्ट नहीं होने दिया। प्रजा के ही कल्याण के निमित्त वह उससे कर लेता था—सूर्य जो पृथ्वी के ऊपर के जल को अपनी किरणों से खींच लेता है वह अपने लिए नहीं, उसे वह हज़ार गुना अधिक करके फिर पृथ्वी ही पर बरसा देने के लिए खींचता है। पृथ्वी ही के कल्याण के लिए वह उसके जल का आकर्षण करता है, अपने कल्याण के लिए नहीं।
वह राजा इतना पराक्रमी और इतना शूरवीर था कि सेना से काम लेने की उसे कभी ज़रूरत ही नहीं पड़ती थी। छत्र और चामर आदि राज-चिह्न जैसे केवल शोभा के लिए वह धारण करता था वैसे ही सेना को भी वह केवल राजसी ठाठ समझ कर रखता था। उसके पुरुषार्थ के दो ही साधन थे—एक तो प्रत्येक शास्त्र में उसकी अकुण्ठित बुद्धि, दूसरे उसके धनुष पर जब देखो तब चढ़ी हुई प्रत्यच्चा अर्थात् डोरी। इन्हीं दो बातों में उसका सारा पुरुषार्थ खर्च होता था। उसके चढ़े हुए धनुष को देख कर ही उसके वैरी काँपा करते थे। अतएव कभी उसे युद्ध करने का मौक़ा ही न आता था। इसीसे उसका प्रायः सारा समय शास्त्राध्ययन में ही व्यतीत होता था।
जो काम वह करना चाहता था उसे वह गुप्त रखता था, अपने विचारों को वह पहले से नहीं प्रकट कर देता था। अपने हर्ष-शोक आदि विकारों को भी वह अपने चेहरे पर परिस्फुट नहीं होने देता था। उसकी क्रियमाण बातें और आन्तरिक इच्छायें मन की मन ही में रहती थीं। पूर्व जन्म के संस्कारों की तरह जब उसका अभीष्ट कार्य सफल हो जाता था तब कहीं लोगों को इसका पता चलता था कि इस राजा के अमुक कार्य्य का कभी आरम्भ भी हुआ था।
धर्म, अर्थ और काम—इन तीनों का नाम त्रिवर्ग है। इनका साधन एक मात्र शरीर ही है। शरीर के बिना इनकी सिद्धि नहीं हो सकती। यही सोच कर वह निर्भयतापूर्वक अपने शरीर की रक्षा करता था। बिना किसी प्रकार के क्लेश या दुःख का अनुभव किये ही वह धर्म्माचरण में रत रहता था। बिना ज़रा भी लोभ की वासना के वह धनसञ्चय करता था। और, बिना कुछ भी आसक्ति के वह सुखोपभोग करता था।
दूसरे की गुप्त बातें जान कर भी वह चुप रहता था, कभी मर्म्मभाषण न करता था। यद्यपि हर प्रकार का दण्ड देने की उसमें शक्ति थी, तथापि