प्रस्थ हो जाते हैं, और, अन्तकाल उपस्थित होने पर समाधिस्थ होकर योगद्वारा शरीर छोड़ देते हैं।
सज्जन ही गुण-दोषों का अच्छी तरह विवेचन कर सकते हैं। अतएव वे ही मेरे इस रघुवंश-वर्णन को सुनने के पात्र हैं, और कोई नहीं। क्योंकि, सोना खरा है या खोटा, इसकी परीक्षा उसे आग में डाल कर तपाने ही से हो सकती है।
वेदों में ओङ्कार के समान सब से पहला राजा वैवस्वत नाम का एक प्रसिद्ध मनु हो गया है। बड़े बड़े विद्वान् तक उसका सम्मान करते थे। उसी वैवस्वत मनु के पवित्र वंश में, क्षीर-सागर में चन्द्रमा के समान, नृपश्रेष्ठ दिलीप नाम का एक राजा हुआ। उसकी छाती बेहद चौड़ी थी। उसके कन्धे बैल के कन्धों के सदृश थे। उँचाई उसकी साल वृक्ष के समान थी। भुजायें उसकी नीचे घुटनों तक पहुँचती थीं। शरीर उसका सशक्त और नीरोग—अतएव सब तरह के काम करने योग्य था। क्षत्रियों का वह मूर्तिमान् धर्म था। जिस तरह उसका शरीर सबसे ऊँचा था उसी तरह बल भी उसमें सब से अधिक था। यही नहीं, तेजस्वियों में भी वह सब से बढ़ा चढ़ा था। इस प्रकार के उस राजा ने, सुमेरु-पर्वत की तरह, सारी पृथ्वी पर अपना अधिकार जमा लिया था।
जैसा उसका डील डौल था, वैसी ही उसकी बुद्धि भी थी। जैसी उसकी बुद्धि थी, शास्त्रों का अभ्यास भी उसने वैसा ही विलक्षण किया था। शास्त्राभ्यास उसका जैसा बढ़ा हुआ था, उद्योग भी उसका वैसा ही अद्भुत था। और, जैसा उसका उद्योग था, कार्यों में फल-प्राप्ति भी उसकी वैसी ही थी।
समुद्र में महाभयङ्कर जल-जन्तु रहते हैं; इससे लोग उसके पास जाते डरते हैं। परन्तु साथही इसके उसमें अनमोल रत्न भी होते हैं; इससे प्रसन्नतापूर्वक लोग उसका आश्रय भी स्वीकार करते हैं। राजा दिलीप भी ऐसे ही समुद्र के समान था। उसके शौर्य, वीर्य आदि गुणों के कारण उसके आश्रित जन उससे डरते भी रहते थे और उसके दया-दाक्षिण्य आदि गुणों के कारण उस पर प्रीति भी करते थे।
सारथी अच्छा होने से जैसे रथ के पहिये पहले के बने हुए मार्ग से एक इञ्च भी इधर उधर नहीं जाते उसी तरह, प्रजा के आचार का उपदेष्टा होने के कारण उसकी प्रजा वैवस्वत मनु के समय से चली आने वाली आचार-परम्परा का एक तिल भर भी उल्लङ्घन नहीं कर सकती थी।
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