दिया गया है। परन्तु उन्नीसवें सर्ग को छोड़ कर शेष ग्रन्थ में ऐसे स्थल दोही चार हैं, अधिक नहीं। अतएव, इससे कालिदास के कथन के रसास्वादन में कुछ भी व्याघात नहीं आ सकता। यह इसलिए किया गया है जिसमें आबालवृद्ध, स्त्री-पुरुष, सभी इस अनुवाद को सङ्कोच-रहित होकर पढ़ सकें।
ऊपर जिन दो अनुवादों का उल्लेख किया गया उनसे इस अनुवाद में कहीं कहीं कुछ भेद भी है। एक उदाहरण लीजिए। रघुवंश के सातवें सर्ग का अट्ठाईसवाँ श्लोक यह है:—
तौ स्नातकैर्बन्धुमता च राज्ञा
पुरन्ध्रिभिश्च क्रमशः प्रयुक्तम्।
कन्याकुमारौ कनकासनस्थो
आर्द्राक्षतारोपणमन्वभूताम्॥
इसका अर्थ राजा साहब ने लिखा है:—
सोने के आसन पर बैठे हुए उन दूल्हा-दुलहिन ने स्नातकों का और बान्धवों सहित राजा का और पति-पुत्र वालियों का बारी बारी से आले धान बोना देखा।
और, पण्डित ज्वालाप्रसाद मिश्र ने लिखा है:—
सोने के सिंहासन पर बैठे हुए वह वर और वधू स्नातकों और कुटुम्बियों सहित राजा का तथा पति और पुत्र वालियों का क्रम क्रम से गीले धान बोना देखते हुए।
इसी श्लोक का भावार्थ इस अनुवाद में इस प्रकार लिखा गया है:—
इसके अनन्तर सोने के सिंहासन पर बैठे हुए वर और वधू के सिर पर (रोचनारज्जित) गीले अक्षत डाले गये। पहले स्नातक गृहस्थों ने अक्षत डाले, फिर बन्धु-बान्धवों सहित राजा ने, फिर पति-पुत्रवती पुरवासिनी स्त्रियों ने।
इसी तरह के भेदभावदर्शक सातवें ही सर्ग के एक और स्थल को देखिए। इस सर्ग का सत्तावनवाँ श्लोक है:—
स दक्षिणं तूणमुखे न वामं
व्यापारयन् हस्तमलयताजौ।
आकर्णकृष्टा सकृदस्य योद्धु—
मौर्वीव बाणान् सुपुवे रिपुघ्नान्॥
राजा साहब ने इसका शब्दार्थ इस तरह लिखा हैः—
वह निपङ्ग के मुख पर सुन्दर दाहना हाथ रखता हुश्रा युद्ध में दिखलाई दिया; एक बार कान तक खैंची हुई उस योद्धा की प्रत्यच्चा ने मानो वैरियों के मारनेवाले बाण उत्पन्न किए।