पद्य हैं। चरित क्या है, राजाओं की नामावली मात्र है। जान पड़ता है, इन राजाओं के राजत्व-काल में अयोध्या की दशा अच्छी न थी और इन लोगों ने कोई महत्त्व के काम नहीं किये। इसी से इनके चरित की विशेष सामग्री कालिदास को उपलब्ध नहीं हुई। अठारहवें सर्ग के अन्त में बालक-नरेश सुदर्शन की बाल्यावस्था का वर्णन दस पाँच पद्यों में करके उन्नीसवें सर्ग में कालिदास ने अग्निवर्ण की कामुकता का वर्णन किया है और उस सर्ग की समाप्ति के साथही पुस्तक की भी समाप्ति कर दी है। जिस समय अग्निवर्ण राजयक्ष्मा रोग से मरा उस समय उसकी प्रधान रानी गर्भवती थी। अग्निवर्ण के मन्त्रियों ने उसी को सिंहासन पर बिठा कर अयोध्या की अनाथ प्रजा को सनाथ किया। बस, यहीं तक का वृत्तान्त लिख कर कालिदास चुप हो गये हैं। न उन्होंने अगले राजाओं ही का कुछ हाल लिखा और न रघुवंश की समाप्ति के सम्बन्ध ही में कुछ कहा। इसका यथार्थ कारण अनुमान द्वारा जानना बहुत कठिन है।
रघुवंश के हिन्दी-अनुवाद।
जहाँ तक हमें मालूम है, इस समय हिन्दी में रघुवंश के चार अनुवाद विद्यमान हैं। उनमें से दो पद्य में हैं, दो गद्य में। पहला पद्यबद्ध अनुवाद लाला सीताराम, बी॰ ए॰, का है, और दूसरा पण्डित सरयूप्रसाद मिश्र का। उनके विषय में यहाँ पर कुछ कहने की आवश्यकता नहीं, क्योंकि वे पद्य में हैं और यहाँ केवल गद्य में किये गये अनुवादों की विशेषता का उल्लेख करने की आवश्यकता है।
रघुवंश का गद्यात्मक अनुवाद पहले पहल राजा लक्ष्मणसिंह ने किया। इस अनुवाद को उन्होंने—"विद्यार्थियों के उपकार के लिए हिन्दी बोली में किया"। इसमें उन्होंने संस्कृत के प्रत्येक पद का अर्थ चुने हुए शब्दों में ज्यों का त्यों हिन्दी में कर दिया है। न उन्होंने कोई पद अपनी तरफ़ से बढ़ाया और न कोई घटाया। उन्होंने अपने अनुवाद में मूल का यहाँ तक अनुगमन किया है कि संस्कृत के जिस पद में जो विभक्ति थी, उसके हिन्दी-अनुवाद में भी, यथासम्भव, वही विभक्ति रक्खी है। अर्थात् संस्कृत के मूल शब्दों को उन्होंने तद्वत् हिन्दी में रख दिया है। रघुवंश का पहला श्लोक है:—
वागर्थाविव सम्पृक्तौ वागर्थप्रतिपत्तये।
जगतः पितरौ वन्दे पार्वतीपरमेश्वरौ॥
इसका अनुवाद राजा साहब ने किया है:—